नरसिंह अवतार

  • Updated: Aug 08 2023 08:12 PM
नरसिंह अवतार

अर्थ और रूप

नरसिंह अथवा नृसिंह (मानव रूपी सिंह) को पुराणों में भगवान विष्णु का अवतार माना गया है। जो आधे मानव एवं आधे सिंह के रूप में प्रकट होते हैं, जिनका सिर एवं धड तो मानव का था लेकिन चेहरा एवं पंजे सिंह की तरह थे | वे भारत में, खासकर दक्षिण भारत में वैष्णव संप्रदाय के लोगों द्वारा एक देवता के रूप में पूजे जाते हैं जो विपत्ति के समय अपने भक्तों की रक्षा के लिए प्रकट होते हैं।

कथा

विष्णुपुराण में वर्णित एक कथा के अनुसार, सतयुग के अंत में महर्षि कश्यप और उनकी पत्नी दिति के दो पुत्र जन्मे। उनके पुत्रों का नाम था हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष। दिति के बड़े पुत्र हिरण्यकशिपु ने तपस्या की और ब्रह्मा को प्रसन्न कर उससे वरदान मांगा कि उसे किसी मनुष्य, पशु, दिन, रात, घर के अंदर या बाहर, अस्त्र या शस्त्र से मृत्यु नहीं हो सकेगी। इस वरदान के कारण हिरण्यकशिपु का अहंकार बढ़ गया और वह अमरीत हो गया मानने लगा।

उसने इंद्र का राज्य हासिल किया और सम्पूर्ण लोकों को अत्याचारित करने लगा। उसका इच्छा था कि सभी मानव उसे दिव्य मानें और उसकी पूजा करें। वह ने अपने राज्य में भगवान विष्णु की पूजा को प्रतिबंधित कर दिया था।हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे उनके नाम थे प्रह्लाद , अनुहल्लाद , संहलाद और हल्लद थे। हिरण्यकशिपु का सबसे ज्यादा प्रिय पुत्र प्रह्लाद था, जो भगवान विष्णु के व्यक्तिगत भक्त थे। प्रतिदिन की ज़िंदगी में भले ही उसे अपने पिता की अत्याचारों और दर्दनाक प्रहारों का सामना करना पड़ता था, परंतु वह अपने आदर्श देवता विष्णु की पूजा करने में ही लगा रहते थे।

एक दिन, हिरण्यकशिपु ने अपनी बहन होलिका के साथ मिलकर योजना बनाई कि वे प्रह्लाद को उसकी भक्ति से दूर करने के लिए उसे जलती अग्नि में डालेंगे, क्योंकि होलिका को एक वरदान मिला था जिसके अनुसार वह अग्नि में नहीं जल सकती थी। तब प्रह्लाद के जन्मदिन के दिन, होलिका ने उसे गोदी में लेकर अग्नि की ओर बढ़ा दिया। परंतु इस क्रूर योजना के बावजूद, जब अग्नि की धारा प्रह्लाद को छू गई, तो वह अपाय नहीं हुआ और होलिका खुद अग्नि में समाहित हो गई।

इस घटना से स्पष्ट होता है कि भगवान की भक्ति और सत्य परायणता कभी भी अन्याय और अत्याचार को परास्त नहीं करती, और अन्याय का परिणाम आखिरकार अन्यायी के ही प्रति होता है। अंतिम प्रयास में हिरण्यकशिपु ने लोहे के एक खंभे को गर्म कर लाल कर दिया तथा प्रह्लाद को उसे गले लगाने को कहा। एक बार फिर भगवान विष्णु प्रह्लाद को उबारने आए। वे खंभे से नरसिंह के रूप में प्रकट हुए तथा गोधूलि बेला में, जब न दिन था न रात, महल के प्रवेशद्वार की चौखट पर, जो न घर के अंदर था और न ही बाहर, हिरण्यकशिपु के सामने एक विचित्र दृश्य प्रकट हुआ। वहाँ एक अद्वितीय रूप आया, जिसमें आधा मनुष्य और आधा पशु का संयोजन था। उसके तेज़ और लंबे नाखून ने अदृश्य अस्त्रों और शस्त्रों की बजाय हिरण्यकशिपु की प्राणशक्ति का स्वागत किया।

वह विचित्र रूप था नरसिंह का, जो न नर था और न पशु, और वह अपने भयानक नाखूनों से हिरण्यकशिपु के शरीर को चीरकर उसके दुष्कर्मों का अंत कर डाला। हिरण्यकशिपु ने अनेक वरदानों की प्राप्ति की थी, परंतु उसके दुष्कर्मों के परिणाम से उसका भयानक अंत हो गया।

शरभ और नृसिंह युद्ध

हिरण्यकशिपु के वध के बाद, भगवान नरसिंह के क्रोध को शांत करने के लिए प्रह्लाद भी प्रयास किये, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। तब देवताएँ भगवान शंकर की ओर वक्तव्य की। इस परम्परा के अनुसार, देवताएँ पहले अपने गण वीरभद्र को भेजे, लेकिन वह भी असफल रहे। इसके बाद ब्रह्मा जी के प्रार्थना पर, भगवान शिव ने अपने शेर, मनुष्य और शरभ रूपों को मिलाकर एक अद्वितीय रूप धारण किया। इस रूप में, वे भगवान नरसिंह के सामने प्रकट हुए। नरसिंह रूपी भगवान विष्णु के क्रोध को शांत करने के लिए शरभ रूपी भगवान शिव ने पहले विष्णु स्तुति की। परंतु नरसिंह रूपी विष्णु का क्रोध शांत नहीं हुआ।

इसके बाद, शरभ रूपी भगवान शिव ने नरसिंह रूपी विष्णु को अपनी पूंछ में बांधकर पाताल लोक ले गए। पाताल लोक में, उन्होंने शरभेश्वर की पकड़ में खींचकर प्रयास किया, लेकिन वे छूट नहीं पाए। तब भगवान नरसिंह ने भगवान शिव की स्तुति की और फिर अपने मूल विष्णु स्वरूप में वापस आ गए।