सुदामा का चरित्र

  • Updated: Apr 22 2025 11:49 AM
सुदामा का चरित्र

सुदामा का चरित्र और श्री कृष्ण के साथ उनकी मित्रता

सुदामा का जन्म एक साधारण ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम मटुका और उनकी माता का नाम रोचना देवी था। इसके विपरीत, कृष्ण एक राजसी वंश से थे और भगवान विष्णु के दिव्य अवतार थे। उनकी अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के बावजूद, यह कभी भी उनके गहरे बंधन या साझा सीखने के आड़े नहीं आया। साथ में, उन्होंने गुरुकुल में गुरु संदीपनी मुनि के मार्गदर्शन में अध्ययन किया, जहाँ सभी छात्र, चाहे उनकी स्थिति कुछ भी हो, गुरु की भक्ति के साथ सेवा करते थे।

एक दिन, अपने गुरु के आदेश पर, कृष्ण और सुदामा लकड़ी इकट्ठा करने के लिए जंगल में गए। जब वे वहाँ थे, अचानक आई आंधी ने उन्हें एक पेड़ के नीचे शरण लेने के लिए मजबूर कर दिया। सुदामा अपने साथ कुछ चपटा चावल (चूड़ा) लाए थे। कृष्ण की भूख को भांपते हुए, और शुरू में झिझकने के बावजूद, सुदामा ने अपना सादा भोजन उनके साथ साझा किया। कृष्ण, जो सब जानते थे और सब कुछ देखते थे, मुस्कुराए और बताया कि चूड़ा उनका पसंदीदा नाश्ता था। इस छोटे से इशारे ने उनकी दोस्ती को और गहरा कर दिया।

साल बीत गए। अपनी शिक्षा पूरी करने के बाद, दोनों ने अपना नियत जीवन व्यतीत किया। कृष्ण द्वारका के शासक बन गए, जबकि सुदामा ने सादगी और भक्ति का जीवन चुना। हालाँकि, उनका जीवन घोर गरीबी से भरा था। कई बार, वह मुश्किल से अपने परिवार का भरण-पोषण कर पाते थे। उनकी कठिनाइयों को देखकर, उनकी पत्नी सुशीला ने उन्हें उनके बचपन के मित्र कृष्ण की याद दिलाई और उनसे मदद माँगने का आग्रह किया।

अनिच्छा से, सुदामा सहमत हो गए, हालाँकि उनका कोई एहसान माँगने का इरादा नहीं था। उनके लिए, सच्ची दोस्ती लेन-देन नहीं थी। उन्होंने एक विनम्र भेंट—चूड़ा की एक छोटी पोटली, यह याद करते हुए कि यह कृष्ण को प्रिय है—इकट्ठा की और द्वारका के लिए निकल पड़े।

जब सुदामा महल में पहुँचे, तो कृष्ण ने उनका खुले हाथों से स्वागत किया, बड़ी श्रद्धा से उनके पैर धोए और उनके साथ सबसे प्यारे दोस्तों के लिए आरक्षित सम्मान के साथ व्यवहार किया। अपने शाही दर्जे के बावजूद, सुदामा के लिए कृष्ण का प्यार अपरिवर्तित था। मज़ाक में, कृष्ण ने पूछा कि क्या सुदामा उनके लिए खाने के लिए कुछ लाए हैं, उन्हें पुराने दिनों की याद दिलाते हुए। शर्मिंदा लेकिन मुस्कुराते हुए सुदामा ने चूड़ा चढ़ाया। कृष्ण ने उसे प्रसन्नता और आनंद के साथ खाया।

सुदामा ने कभी अपनी गरीबी के बारे में बात नहीं की, न ही उसने मदद मांगी। लेकिन कृष्ण सर्वज्ञ थे, इसलिए सब कुछ जानते थे। अपने प्रिय मित्र के साथ समय बिताने के बाद, कृष्ण ने उन्हें विदा किया।

जब सुदामा घर लौटे, तो वे भावनाओं से अभिभूत थे। लेकिन जो उनका इंतजार कर रहा था, वह और भी अधिक आश्चर्यजनक था - उनकी साधारण झोपड़ी एक शानदार महल में बदल गई थी, और उनका परिवार बढ़िया कपड़ों से सुसज्जित था। कृष्ण ने बिना मांगे ही अपने मित्र पर दिव्य कृपा बरसा दी थी।

कृतज्ञ और गहराई से अभिभूत, सुदामा ने अपना शेष जीवन भक्ति और कृतज्ञता में बिताया, हमेशा श्री कृष्ण के साथ साझा की गई शुद्ध मित्रता के बंधन को संजोए रखा।

सुदामा की दरिद्रता का कारण

एक बार जब गुरुकुल में सुदामा और श्री कृष्ण गुरुमाता के आदेश से जंगल में लकड़ी लेने के लिए गए। गुरुमाता ने दोनों को खाने के लिए एक पोटली में चने बांध कर दिए थे। जंगल में बहुत तेज बारिश होने लगी और दोनों बारिश से  अलग अलग चिप गए। समय बीतने के बाद दोनों को भूख लगने लगी। सुदामा जी ने अकेले ही सारे चने खा लिए थे। जब श्री कृष्ण ने चने मांगे तब सुदामा ने उनसे कहा के मैं भूख से पीड़ित था तो मैं सारे चने खा गया। तब श्री कृष्ण ने हंसी में उन्हें कहा के ये दरिद्रता के लक्षण है और तुम्हें  भोगना भी पद सकता है। श्री कृष्ण के मुख से निकले वचन कभी असत्य नहीं होते इसी कारण सुदामा को दरिद्रता में जीवन जीना पड़ा था।

इस कथा से एक विचार और उठता है के सुदामा जो परम ज्ञानी थे और गुरुकुल में पढ़ते थे। क्या वो अपने मित्र के भाग का खाना खा सकते थे, नहीं। शास्त्रों में इसका वर्णन मिलता है। संदीपन ऋषि के आश्रम के पास गाँव में एक निर्धन बुढ़िया रहती थी जो भिक्षा मांग कर अपना जीवन यापन करती थी। एक बार जब वो भिक्षा मांग कर आयी तब तक रात्रि का समय हो चूका था और उसे भिक्षा में दो मुट्ठी चने मिले थे जो उसने अपने तकिये के नीचे रख दिया जो वो सुबह ईश्वर को भोग लगाने के बाद खाने वाली थी। परन्तु रात में एक चोर उस पोटली को धन की पोटली समझकर उठा ले गया और जब उसे पता लगा के इसमें चने है तो वो उस पोटली को आश्रम के द्वार पर छोड़ कर चला गया। सुबह जब बुढ़िया को पता लगा तब उसने श्राप दिया के जो उन चनों का सेवन करेगा वो भी मेरी तरह दरिद्र हो जायेगा। गुरु माता ने वही पोटली सुदामा जी को दी थी और सुदामा जी ने पोटली को हाथ में लिया तो उन्हें इसका ज्ञान हो गया था। सुदामा जी श्री कृष्ण को भी जानते थे के वो ही परमेश्वर है और उनकी दरिद्रता पूरी सृष्टि के लिए दुखदायी होगी इसलिए उन्होंने मांगने के उपरांत भी श्री कृष्ण चने खाने को नहीं दिए। जिसके परिणाम स्वरुप उन्हें दरिद्रता भोगनी पड़ी।

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता के भजन 

श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता पर बहुत ही अच्छे भजन सुनाये जाते है। हरियाणा की एक गायिका विधि देशवाल के द्वारा श्री कृष्ण और सुदामा जब द्वारिका में मिलते हैं तब एक दुसरे के प्रति प्रेम को दर्शाते हुए भजन गाए हैं जो बहुत ही सुन्दर है और भक्तिमय है। 

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