कर्ण महाभारत के महानायकों में से एक और सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर भी था | कर्ण महाभारत के उन पात्रों में से एक है जिन्हें ख्याति तो मिली ही मगर लोग उससे सहानुभूति भी रखते हैं, क्यूंकि बहुत सारे लोगों का मानना है के उसे अपनी योग्यता अनुसार वो सम्मान न मिल सका जिसका वो हक़दार था |
कर्ण का जन्म
जैसा की महाभारत में वर्णन है के कर्ण पांडवों का भाई था | मगर उसका जन्म कुंती के विवाह से पूर्व हुआ था | जब कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर दुर्वासा ऋषि ने उसको वरदान दिया के वो जिस देवता का आह्वान करेंगी वो देवता उसके सामने प्रकट हो जायेंगे और उन्हें मनचाही वस्तु या वरदान देना होगा | एक दिन कुंती के मन में शंका हुयी और उन्होंने दुर्वासा ऋषि के वरदान को परखने के लिए सूर्य देव का आह्वान किया और सूर्य देव प्रकट हुए | जब सूर्यदेव ने कुंती से मनचाही वास्तु मांगने को कहा तो कुंती ने कहा के उसे कुछ नहीं चाहिए वो सिर्फ दुर्वासा ऋषि के वरदान को परखना चाहती थी | इस पर सूर्य देव ने कहा के मेरा प्रकट होना व्यर्थ नहीं हो सकता इसलिए मैं तुम्हे एक पुत्र का वरदान देता हूँ जो मेरा ही अंश होगा और वो सोने के कवच और कुण्डल के साथ हो पैदा होगा और वो अभेद होंगे |
कर्ण की पालन पोषण
कर्ण के पालक माता पिता का नाम अधिरथ और माता का नाम राधेय था | सूर्य देव के वरदान से कुंती को पुत्र तो हुआ मगर अभी तक उसका विवाह नहीं हुआ था | लोकलाज के डर से कुंती ने उस पुत्र का त्याग करने का फैसला किया | तब कुंती ने कर्ण का त्याग किया | इसके बाद ही कर्ण अधिरथ और राधेय को मिला और उन्होंने ही कर्ण का पालन पोषण किया |
कर्ण की शिक्षा और कर्ण को मिले अभिशाप
कर्ण सूर्य पुत्र था और जन्म से ही साहसी और पराक्रमी भी था | उसे बचपन ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनना था | कर्ण ने धनुर्विधा की शिक्षा भगवान परशुराम से ली थी | धनुर्विधा सीखने के लिए कर्ण ने परशुराम से झूठ बोला था के वो जाति से ब्राह्मण है | भगवान परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को हो धनुर्विधा सिखाते थे | 
 जब कर्ण की शिक्षा अंतिम चरण में थी तब एक दोपहर को भगवान परशुराम कर्ण की जंघा पर सिर रख कर विश्राम कर रहे थे | उसी समय एक बिच्छू कर्ण की दूसरी जंघा पर घाव बनाने लगा | गुरु का विश्राम भंग न हो इसलिए कर्ण बिच्छू को दूर न हटा सका और चुपचाप सब सहता रहा | जब भगवान परशुराम की नींद टूटी तो उन्होंने देखा के कर्ण की दूसरी जांघ से खून बहा रहा है | तब भगवान परशुराम ने क्रोध में आकर कर्ण से कहा के इतनी सहन शक्ति किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकती और क्रोध में उन्होंने कर्ण को श्राप दिया के उनकी शिक्षा की जब सर्वाधिक आवश्यक्ता होगी उसी समय उसके काम नहीं आएगी | 
कर्ण को और भी दो अभिशाप मिले थे जैसे की उसकी मृत्यु तब होगी जब वो असाहय होगा और धरती माता के श्राप के कारण ही महारभारत के युद्ध में उसके रथ का पहिया धंस गया था | जो कर्ण की मृत्यु में बड़े कारण थे |
दुर्योधन से मित्रता और कर्ण का राज्याभिषेक
जब पांडव और कौरव गुरु द्रोणाचार्य से शिक्षा प्राप्त करके हस्तिनापुर राजमहल लौटे तब सभी के कौशल का प्रदर्शन करने के लिए कार्यक्रम का आयोजन किया गया | तब कर्ण भी उस आयोजन में भाग लेने के लिए उपस्थित हुआ और धनुर्विधा का प्रदर्शन करना चाहा | मगर उस इसलिए भाग नहीं लेने दिया क्यूंकि वो एक सूत पुत्र था केवल क्षत्रिय या फिर राजकुमार ही उस प्रतियोगिता में भाग ले सकते थे | उसी समय दुर्योधन ने कर्ण से मित्रता करते हुए उसे अंग प्रदेश का राजा बना दिया | दुर्योधन ने इसके बदले कर्ण से मित्रता मांगी और कर्ण ने दुर्योधन से पूरी निष्ठा से मित्रता निभाई |
कर्ण का पूर्वजन्म
कर्ण पूर्वजन्म में एक दम्भोद्धव नामक राक्षस था | उसने कठोर तपस्या करके उनसे वरदान में १००० कवच मांगे और साथ ही ये वरदान माँगा के कवच को वही भेद सके जिसने १००० साल तक तपस्या की हो और इसको भेदने वाले की मृत्यु हो जाये | हालाँकि सूर्यदेव को पता था के दम्भोद्धव इसका अनुचित उपयोग ही करेगा फिर भी उन्होंने उसे ये वरदान दे दिया | इस प्रकार उसका नाम सहस्रकवच पड़ गया  इस वरदान को पाकर और अपनी शक्ति में चूर दम्भोद्धव ने चारो तरफ उत्पात मचा दिया और ऋषियों और मुनियों और मनुष्यों को त्रास देने लगा | तब दक्ष प्रजापति की पुत्री मूर्ति ने भगवान विष्णु की तपस्या की और उन्हें दम्भोद्धव को परास्त करके उसके दुष्कर्मो का अंत करने का आग्रह किया | भगवान विष्णु ने उनसे कहा कि वह स्वयं सहस्त्रचक्र का अंत करेंगे, जिसका माध्यम मूर्ति ही बनेंगी। कुछ समय बाद मूर्ति ने नर-नारायण नाम के दो जुड़वा बच्चों को जन्म दिया, जिनके शरीर तो अलग थे लेकिन कर्म, मन और आत्मा से वे एक-दूसरे से जुड़े हुए थे।
नर और नारायण के संयुक्त प्रयास से सहस्त्र कवच का अंत हुआ। जब नर सहस्त्र कवच से युद्ध में व्यस्त थे तब नारायण कठोर तपस्या में लीन रहते थे। और जब नारायण सस्त्रकवच से युद्ध करते तब नर तपस्या किया करते थे | इस प्रकार नर और नारायण ने सहस्त्र कवच के 999 सुरक्षा कवच काट डाले। जब एक कवच रह गया तब सहस्त्र कवच ने सूर्य लोक में शरण ली।
नर और नारायण, दोनों सूर्य लोक पहुंचे और सूर्य देव से असुर को वापस करने की मांग की। सूर्य देव ने कहा &ldquoहे ईश्वर, मैं मानता हूँ के दम्भोद्धव एक बुरी आत्मा है, लेकिन वह मदद के लिए मेरी शरण में आया है, इसकी तपस्या का फल इससे मत छीनिये |"
सूर्य देव की इस बात से क्रोधित होकर सूर्य समेत दम्भोद्धव असुर को नर ने यह श्राप दिया कि अगले जन्म में दोनों को ही अपनी करनी का दंड भोगना पड़ेगा। द्वापर में सूर्य के वरदान से असुर दंबोधव का कर्ण के रूप में जन्म हुआ। कर्ण का जन्म उसी सुरक्षा कवच के साथ हुआ जो असुर दंबोधव के पास शेष रह गया था, और सूर्यदेव को अपनी करणी के कारण एक सूत पुत्र के घर में रहना पड़ा |
कर्ण की मृत्यु
महाभारत के सत्रह्वे दिन युद्ध में कर्ण और अर्जुन में महा भीषण युद्ध हुआ था |और इस युद्ध में कर्ण और अर्जुन दोनो ही एक दूसरे पर महाअस्त्र का प्रयोग कर रहे थे कि तभी कर्ण के रथ का पहिया जमीन में धस गया और कर्ण उसे निकाल नहीं पा रहा था और असहाय कर्ण अर्जुन को हराने में असमर्थ था और आखिर में अर्जुन ने अजन्लिकास्त्र से कर्ण की छाती में मारकर उनका वध किया | कर्ण के मिले सभी अभिशाप एक साथ फलित हुए तब कर्ण की मृत्यु हुयी |
इति श्री
कर्ण आज भी लाखों लोगो के लिए एक महान योद्धा है और उसकी अमिट प्रसिद्धि इसी बात का प्रमाण है | कर्ण एक ऐसा योद्धा था जो जीवन भर दुखद जीवन जीता रहा। उसे एक महान योद्धा माना जाता है, जो साहसिक आत्मबल युक्त एक ऐसा महानायक था जो अपने जीवन की प्रतिकूल स्थितियों से जूझता रहा।
विशेष रूप से कर्ण अपनी दानप्रियता के लिए प्रसिद्ध है | कर्ण के इसी गुण का लाभ उठाकर देवराज इंद्र ने अर्जुन की रक्षा के लिए उसके कवच और कुण्डल धोके से दान में मांग लिए और माता कुंती को भी कर्ण ने वचन दिया था के वो सदैव पांच पुत्रों की माता रहेंगी | वो अर्जुन के सिवा किसी और पांडव को नहीं मरेगा |
वह इस बात का उदाहरण भी है कि किस प्रकार अनुचित कर्म किसी व्यक्ति के श्रेष्ठ व्यक्तित्व और उत्तम गुणों के रहते हुए भी किसी काम के नहीं होते। कर्ण को कभी भी वह नहीं मिला जिसका वह अधिकारी था, पर उसने कभी भी प्रयास करना नहीं छोड़ा। भीष्म और भगवान कृष्ण सहित कर्ण के समकालीनों ने यह स्वीकार किया है कि कर्ण एक पुण्यात्मा है जो बहुत विरले ही मानव जाति में प्रकट होते हैं। वह संघर्षरत मानवता के लिए एक आदर्श है कि मानव जाति कभी भी हार ना माने और प्रयासरत रहे।
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🌝 बुधवार, 30 अक्टूबर 2024
विक्रम संवत् 2081