सीताजी का जन्म-वृत्तांत और नामकरण
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ ॥
राजा जनक की पुत्री स्वयं जगत की माता और करुणा के सागर श्री रामचन्द्रजी की प्रियतमा श्री जानकीजी के दोनों चरण कमलों में मेरा मन हमेशा लगा रहे जिसके प्रताप से मैं निर्मल बुद्धि पा सकूँ।
माता सीता जी का जन्म मिथिला या विदेह नगरी में भूमि से हुआ था। इसी कारण इन्हें भूसुता भी कहाँ जाता है। माता सीता के स्वयंवर के समय महाराज दशरथ जी ने जनक जी और उनके पुरोहित जी से स्वयं ये पुछा था के सीता पृथ्वी से कैसे प्राप्त हुयी थी, ये पूरा वृतांत हमें बताएं। तब शतानन्द जी जो की जनक जी के पुरोहित थे उन्होंने वृतांत का वर्णन इस प्रकार किया।
शतानन्द बोले- राजन् ! पूर्वकाल में पद्माक्ष नाम का एक प्रसिद्ध राजा था । उसने सारे संसार को लक्ष्मी की कामना में तत्पर देख मन में सोचा कि, मैं अपने तप द्वारा लक्ष्मीजी को ही अपनी पुत्री बनाऊँगा और निरन्तर उन्हीं पर अपने सब प्रेमानुराग निछावर करूँगा- ऐसा विचार कर उसने तीव्र तप किया । उसके तप से प्रसन्न हो जब लक्ष्मी समक्ष आ कर खड़ी हुईं, तो उसने कहा- 'तुम मेरी पुत्री बनो ।' लक्ष्मीजी ने कहा- राजन् ! मैं तो विष्णु के अधीन हूँ, स्वतन्त्र नहीं । अतः तुम विष्णुजी की प्रार्थना करो । यदि वह दें, तो मैं तुम्हारी पुत्री हो सकती हूँ। इसमें संशय नहीं । राजा ने कहा- अच्छी बात है। वह विष्णुजी के लिए तप करने लगा । विष्णुजी प्रकट हो उसे वर देने आये। उसने कहा- 'मुझे रमा (लक्ष्मी) को पुत्री के रूप में दीजिए ।' यह सुन विष्णुजी ने उसे मातुलि (बिजौरा या नारंगी) का फल दिया और अन्तर्धान हो गये । राजा पद्माक्ष ने उस फल को फाड़ कर देखा तो उसमें सुवर्ण के समान एक कन्या दिखाई पड़ी । राजा ने उसे ही अपनी कन्या मानी। वह कन्या सब के चित्त को आनन्द देने लगी । सब लोग प्रसन्न हो लक्ष्मी के नाम से उसे राजा पद्माक्ष की कन्या कहने लगे। राजा की गोद में चन्द्रकला के समान बढ़ती हुई वह कन्या जब विवाह के योग्य हुई तब राजा ने उसके स्वयंवर का प्रारम्भ किया । राजा ने निमन्त्रण भेज कर सब राजाओं को बुलाया । सब राजा पद्माक्ष के स्वयंवर में आये ।
देवता, मुनि, गन्धर्व, दैत्य, मनुष्य, इच्छानुसार रूप धारण करनेवाले, पक्षी, पर्वत, नदी, समुद्र, वृक्ष, यज्ञ, किन्नर और रावण आदि राक्षस भी वहाँ आये। उनको देख कर राजा ने कहा- जो कोई अपने शरीर को नीले आकाश के रंग में रंग लेगा तो, उसे मैं अपनी यह पद्मा नामक कन्या दूँगा- मेरी यही प्रतिज्ञा है। परन्तु वैसा न कर सकने के कारण राजाओं ने बलपूर्वक कन्या को हरण करना चाहा । यह देख राजा पद्माक्ष ने उनसे लोमहर्षक अर्थात् रोमांचकारी भयानक युद्ध किया । उसके बाणों से पीड़ित हो मनुष्य और देवता लोग भी युद्ध पराङ्मुख हो गये । किन्तु दैत्यों ने भयानक संग्राम कर उसे मार डाला और वे सब मिल कर पद्मा को पकड़ने दौड़े। पद्मा अग्नि में कूद पड़ी। तब उसे कहीं न पा कर वे सब राक्षस उसे समस्त नगर में ढूँढ़ने चले । राजमहल को खोद कर गिरा दिया । इधर-उधर की बहुत-सी भूमि खोद डाली । क्षणमात्र में सारा नगर श्मशान हो गया । लक्ष्मी के संसर्ग से राजा पद्माक्ष का सर्वनाश हो गया । यही कारण है कि मुनिजन लक्ष्मी को कभी नहीं चाहते । क्योंकि लक्ष्मी से चित्त चंचल हो जाता है और भय की वृद्धि होती है। मनुष्य मारा जाता है और विशाल शोक एवं दुःख की प्राप्ति होती है, इस कारण उससे दूर ही रहना उचित है। युद्ध में राजा पद्माक्ष की हजारों स्त्रियाँ उसके साथ ही अग्नि में जल मरीं। पश्चात् वे सब दैत्य भी अपने स्थान को चले गये । कुछ दिनों पश्चात् वह लक्ष्मी अग्निकुण्ड से निकल बाहर आ बैठीं । इतने ही में संसार को जीतने की इच्छा से रावण पुष्पक विमान पर बैठा हुआ आकाश मार्ग से आ निकला । तब सारण जो रावण का मन्त्री था, उसे अग्निकुण्ड के बाहर देख, रावण को दिखला कर कहने लगा कि पूर्वकाल में जिस पद्मा के लिए देवता और असुरों को राजा पद्माक्ष के साथ युद्ध करना पड़ा था। यह वही कन्या अग्निकुण्ड के समीप बैठी है। तब सारण के इस बचन को सुन रावण ने ज्योंही लक्ष्मी की ओर देखा तथा काम से पीड़ित हो रथ से कूद पड़ा और उसे (पद्मा को) पकड़ना चाहा । परन्तु इसके पूर्व ही वह पुनः अग्नि में प्रवेश कर गई । यह देख रावण ने कहा- पद्म ! तुमने पहले भी अग्नि में प्रवेश कर सब राजाओं और दैत्यों को बड़ा कष्ट दिया है, परन्तु आज तो मैंने तेरे निवास- स्थान को जान लिया है। अब मैं इस सारे अग्निकुण्ड को छान कर तुझे प्राप्त करूँगा। ऐसा कह कर रावण ने जल के घड़ों से अग्नि को बुझा दिया और जब राख को उठा कर अपनी सन्दूक में रखा और विमान पर चढ़ लंका को चला। वहाँ पहुँच कर सन्दूक को मन्दोदरी के महल में भेज दिया और दिन का अन्त होने पर जब रात्रि में वह मन्दोदरी सहित महल में विश्राम करने लगा, तब उसने मन्दोदरी से कहा- देखो, देवालय में रखे सन्दूक में ऐसे कुछ रत्न मैं बड़े परिश्रम से तुम्हारे लिए ले आया हूँ कि जिन्हें देख तुम सन्तुष्ट हो जाओगी, जाओ उसे ले आओ। मन्दोदरी देव मन्दिर में सन्दूक लेने गई। परन्तु वह सन्दूक उसके उठाये न उठी और लौट कर रावण से कहा कि वह तो मुझ से उठती ही नहीं है। तब रावण स्वयं उसे उठाने गया, परन्तु उससे भी वह पृथ्वी से न हिली। तब तो रावण आश्चर्थित हुआ और उसे भय भी हुआ। तब रावण ने उस सन्दूक को वहीं खोला। फिर तो सूर्य समान कान्तिमान एक कन्या उसे दिखाई पड़ी। उसके तेज से रावण की आँखे चकाचौंध हो गईं और उसका तेज हत-सा हो गया। उस मनोहर बालिका को देखने के लिए उसके मित्र तथा पुत्र आदि आने लगे। तब रावण ने राजा पद्माक्ष की पूर्व तपस्या सहित उस कन्या की उत्पत्ति और देवता तथा राक्षसों की पराजय आदि वर्णन कर वह सब वृत्तान्त कह सुनाया कि किस प्रकार वह पद्मा नाम्नी कन्या उसे प्राप्त हुई थी। तब वह सब वृत्तान्त सुन मन्दोदरी भयभीत हो क्रोध पूर्वक दशानन से बोली- जब तुम यह जानते थे कि यह विध्वंसकारिणी है, तब तुम इस प्रचण्डा को लंका में क्यों ले आये? यह दुष्टा तो स्वयं का ही घात करने वाली है। अतः इसको शीघ्र ही वन में छुड़वा दो। जब यह अपने बाल्यकाल से ही इतनी बोझिल है, तो युवा होने पर न जाने क्या करेगी? मुझे तो ज्ञात होता है कि यह तुम्हारा भी घात करेगी। इसे लंका में एक घड़ी भी न रखो। रावण ने मन्दोदरी की बात को सत्य समझा और मन्त्रियों से परामर्श कर दूतों को आज्ञा दी कि, इस सन्दूक को विमान में रख आज ही वन में छोड़ आओ। राक्षस उसे विमान में रख आकाश मार्ग से ले चले।
मन्दोदरी ने कहा- 'इसे बाहर मत छोड़ना, किन्तु पृथ्वी में गाड़ आना क्योंकि यह तो किसी जितेन्द्रिय गृहस्थाश्रमी के ही गृह में वृद्धि को प्राप्त करेगी। जो सर्व चराचर में स्वात्मीय व्यवहार करेगा, उसी के गृह में यह चिरकाल स्थायी रहेगी। तब मन्दोदरी के इस वाक्य को सुन ज्योंही दूतगण उस सन्दूक को ले कर चले, त्योंही वह कन्या बोली- 'उन सब राक्षसों सहित रावण के वधार्थ मैं फिर लंका में आऊँगी और पुनः तीसरी बार भी यहाँ आ कर निकुम्भ-पुत्र पौण्ड्र को तथा दस सिरवाले उस रावण का वध कर लौट जाऊँगी और पुनः चौथी बार आ कर कुम्भकर्ण के पुत्र मूलकासुर का वध करूँगी ।' तब उसके इस वाक्य को सुन रावण का हृदय जल उठा और वे सब राक्षस भी भयभीत हो मृतक के समान हो गये । रावण ने सोचा, तब इसे मार ही क्यों न डालूँ ? उसने अपनी पैनी तलवार निकाली और ज्योंही चाहा कि पद्मा को मार डालें, त्योंही मयदानव की कन्या मन्दोदरी ने उसे रोक दिया और कहा कि 'आयु के शेष रहते हुए तुम आज ही क्यों मरना चाहते हो ? ऐसा साहस न करो । तुम्हारी मृत्यु हो जायेगी। क्योंकि इसका वचन तो मिथ्या न होगा ? भविष्य को देखा जायेगा, अभी तो तुम इसे वन में छुड़वा दो । कालान्तर में आनेवाली मृत्यु को तुम आज ही क्यों बुलाते हो ?' मन्दोदरी की इस बात को सुन रावण शान्त हो गया और दूतगण उस सन्दूकची को विमान में रख कर ले उड़े । वह विमान उड़ कर मिथिला- नरेश के वन में आ गया । रावण के दूतों ने उसे वहीं उतार कर उस कण्डिका को पृथ्वी में गाड़ दिया। फिर वे दूत लंका में लौट आये । उधर जब सूर्य-ग्रहण का पर्व आया तो विदेह-राज ने वह भूमि एक ब्राह्मण को दान दे दी । जब भूमि जोतने का समय आया, तब उस ब्राह्मण ने एक शुभ मुहूर्त देख कर उसमें शूद्र द्वारा हल भेजा । शूद्र हल से पृथ्वी जोतने लगा । जोतते-जोतते उसके हल के फाल से वह कण्डिका (सन्दूकची) निकल आई । उसे ला कर शूद्र ने उस भूमि के स्वामी को दिया । उसने समझा कि इसमें धन का कोष है। शूद्र ने कहा- महाराज ! आप तो बड़े भाग्यशाली हैं। ऐसे शुभ-मुहूर्त में आप ने कृषि कार्य को आरम्भ कराया कि हल के अग्रभाग सीता अर्थात् फल से यह सन्दूकची आ लगी, आप इसे ग्रहण कीजिये । ज्ञात होता है कि इसमें खजाना भरा है। यह बड़ी बोझिल है। मैं बड़ी कठिनाई से इसे यहाँ ला सका हूँ तब उसे ले जा कर ब्राह्मण ने हर्ष के साथ विदेहराज की सभा में उसे राजा को दिया- और उसकी प्राप्ति का सब समाचार कहा। उसे सुन कर राजा उस ब्राह्मण से बोले- मैंने तो सभक्ति वह भूमि आप को समर्पण कर दी है। अब उसमें प्राप्त यह पिटारी आप की हुई, हमारी नहीं । तब विदेहराज के इस वाक्य को सुन ब्राह्मण ने कहा राजन् ! आप ने मुझे पहले केवल पृथ्वी ही दी है, यह धनपूर्ण सन्दूकची नहीं दी। अतः पृथ्वी में जो यह धन मिला, वह राजा का है, इसमें कोई वाद नहीं है । आप मुझे अर्धम में न डालें और इस पिटारी को स्वीकार करें। इस प्रकार राजा तथा ब्राह्मण का बड़ा विवाद हुआ । तब राजा के सभासदों ने कहा- राजन् ! अब इस विवाद को त्याग यह देखिए कि, इसमें क्या है ? तब विदेहराज ने दूतों से वह सन्दूकची खुलवाई तो, उसमें एक बालिका को देख महाराज को बड़ा आश्चर्य हुआ और ब्राह्मण उसे वहीं छोड़ कर अपने घर चला गया। तब राजा ने उठा कर उस कन्या का पालन किया । देवताओं ने बाजे बजाये और उस कन्या तथा राजा पर फूलों की वर्षा की। गन्धर्व गाने तथा अप्सराएँ नृत्य करने लगीं । जनक राजा ने प्रसन्न हो उसे अपनी पुत्री बनाया । ब्राह्मणों ने उसका जातकर्म संस्कार कराया । राजा ने ब्राह्मणों को बहुत-सा दान दिया । तब मातुलिङ्ग फल से निकलने के कारण वह कन्या मातुलिङ्ग, अग्नि में वास करने से अग्निगर्भा और रत्नों में निवास करने से रत्नावली नाम से सम्बोधित हुई । धरणी से निकलने के कारण धरणिजा, जनक के द्वारा पालित होने से जानकी, सीता के अग्रभाग से अर्थात् फल के अग्रभाग से प्रकट होने के कारण से सीता और राजा पद्माक्ष की कन्या होने से पद्मा भी कही जाने लगी । हे राजन् दशरथ ! इस प्रकार सीता के कई नाम हैं। नील वर्ण आकाश के रंग वाले राम ने इस सीता को प्राप्त कर राजा पद्माक्ष की प्रतिज्ञा सफल कर दी
नवरात्रि (माँ चंद्रघंटा पूजा), सिन्दूर तृतीया
रानी दुर्गावती जयंती, कृपालु जी महाराज जयंती
🪐 शनिवार, 5 अक्टूबर 2024
विक्रम संवत् 2081