बाबा नीम करोली महाराज

  • Updated: Dec 17 2023 04:43 PM
बाबा नीम करोली महाराज

प्रेमावतार बाबा नीम करोली महाराज

अपनी 'मौज' में युवावस्था वय प्राप्त एक 'योगी' हाथ में चिमटा-कमण्डल लिये टून्डला की ओर जाती रेलगाड़ी में फर्रूखाबाद स्टेशन पर प्रथम श्रेणी के एक डिब्बे में बैठ गया। गाड़ी के कुछ मील चलने के उपरान्त डिब्बे में एक एंग्लो इन्डियन टिकेट चेकर टिकेट चेकिंग के लिये आया और एक अधनंगे साधू को फर्स्ट क्लास डिब्बे में देख अचकचा गया। टिकट मांगने पर नकारात्मक उत्तर पाकर उसने क्रोध से अगले फ्लैग स्टेशन, नीबकरौरी पर साधू को तिरस्कृत कर उतार दिया। साधू शान्त भाव से एक पेड़ के नीचे चिमटा गाड़ कर बैठ गया। गाड़ी को आगे जाने का सिग्नल मिला। परन्तु इंजन स्टार्ट करने पर भी गाड़ी आगे नहीं बढ़ी। फुल स्टीम देने के बाद भी इंजन के पहिये अपने ही स्थान पर घूमते रहे। इंजन की मशीनरी की चेकिंग हुई, सभी कुछ सही, तब यूरोपियन गार्ड बेचैन हो कर ड्राइवर के पास आया कि क्या बात है? परन्तु ड्राइवर कोई खराबी की बात न बता सका। कुछ पता न चला, बहुत प्रयास करने के बाद भी गाड़ी टस से मस नहीं हुई। उधर उस पटरी पर अन्य गाड़ियों के भी आने जाने का समय हो चला था तब कुछ भारतीय यात्रियों ने उन विदेशी अधिकारियों को राय दी कि साधू महाराज को गाड़ी में चढ़ा लो, तभी गाड़ी चलेगी। इस पर वे बहुत झल्लाये। अन्त में जब गाड़ी ने टस से मस होने से इन्कार कर दिया तो उन्होंने कहा कि एक बार साधू को गाड़ी में चढ़ा कर भी देख लें। विदेशी अधिकारियों ने बाबा के पास आकर क्षमा मांगी और रेलगाड़ी पर सवार होने की प्रार्थना की। परम कौतुकी बाबा ने कहा कि तुम कहते हो तो चलो बैठ जाते हैं और तब बाबाजी के गाड़ी में सवार होते ही गाड़ी चल पड़ी। और इसी एक घटना के कारण भारत के अनेक नगण्य गाँवो में शामिल ग्राम नीबकरौरी एकाएक विख्यात हो चला तथा इस गाँव में कई वर्ष के प्रवास के उपरान्त जब उक्त बाबा लछमनदास गांव से निकले तो उनका नाम ही नीबकरौरी बाबा अथवा नीम करोली बाबा पड़ गया।

उक्त घटना के बाद गाँव से गुजरती हर गाड़ी १-२ मिनट के लिये रुकने लगी और वहां के प्रवासी (बिना टिकट भी) फर्रूखाबाद आने जाने लगे। कालान्तर में नीबकरौरी नाम का स्टेशन भी बन गया तथा अब तो ठीक गांव के बीच 'बाबा लछमनदास पुरी' फ्लैग स्टेशन भी बन गया है। यह है बाबाजी के चमत्कारी लीलाओं में से एक लीला।

उत्तराखण्ड में महाराज जी को 'बाबा नीब करौरी' की जगह, 'नीम करौरी वाले बाबा' या बाबा नीम करोली कहा जाता रहा है। परन्तु अपनी प्रसिद्धि से सदा उदासीन बाबा जी ने अपने नाम के इस अपभ्रंश का सुधार करवाने की कभी चेष्टा न की !! बाद में अधिकतर लोग 'नीम करोली बाबा' कहने लगे थे या 'बाबाजी' अथवा 'महाराज जी' कहकर सम्बोधित करने लगे।

ऐसे सर्व समर्थ बाबा नीम करोली महाराज की लीलाओं पर प्रकाश डालने की चेष्टा कुछ भक्तों द्वारा पूर्व में भी हो चुकी है, और आज इसी प्रयास में हम भी रत हैं। परन्तु महाराज जी की लीलाओं का (तथा भक्तों पर इन लीलाओं के प्रभाव का) महाराज जी के व्यक्तित्व का, उनके मूल तत्व का, उनके पावन 'चरित्र' का वर्णन शाब्दिक चित्रों द्वारा सम्भव नहीं है। वस्तुतः ये शाब्दिक निरूपण बाबाजी महाराज को केवल अंशमात्र में ही प्रगट कर पाते हैं, तथा अपने में अपूर्ण भी हैं, अधूरे भी। अस्तु बाबाजी को आंशिक रूप में भी प्रगट कर पाने की चेष्टा में हम अपने को नितान्त निरीह पा रहे हैं। केवल वे ही किसी को माध्यम बना कर स्वयं अपनी गाथा कह सकते हैं। अतएव इस ग्रन्थ में जो भी, जितना भी लिपिबद्ध होगा, हो सकेगा, वह केवल बाबाजी की ही इच्छानुसार होगा। बाबा नीमकरोली महाराज जी की व्यापकता एवं क्षमता की कथाओं, दृष्टान्तों का, जो मूलतः केवल उनकी जन जन के प्रति करुणा, दया, कृपा, क्षमाशीलता, वात्सल्य, भक्त वत्सलता, पतितोद्धार, धर्म एवं मर्यादा की रक्षा आदि की भावनाओं के ही प्रतिबिम्ब हैं, अपार भण्डार है-महाराजजी की स्वयं की अपारता की तरह, जिन सबका वर्णन कई ग्रन्थों की रचना करने पर भी पी) पूर्ण होने में सन्देह है। कारण हर भक्त के साथ, हर शरणागत के साथ, यहां तक कि सैकड़ों हजारों उन व्यक्तियों के साथ भी जो महाराजजी के व्यक्तित्व अथवा सामर्थ्य से बिल्कुल अनिभज्ञ थे/रहे, (अथवा जिन्होंने बाबाजी महाराजजी के दर्शन भी नहीं किये) महाप्रभु के उस भक्त, उस शरणागत, उस अनभिज्ञ व्यक्ति की ही क्षमतानुसार उसके प्रारब्ध, कर्म, मनेच्छाके अनुकूल एवं अनुरूप अलग अलग प्रकार की कृपा दया की कल्याणमयी लीलाएँ कीं। इस प्रकार हर कृपापात्र की महाराजजी के प्रति अलग अलग अनुभूतियाँ, अलग अलग भावनायें हैं/रही हैं, उन के अन्तर में महाराजजी की अलग अलग मूर्तियाँ स्थापित हो गईं-यथा, किसी के लिये वे साक्षात् राम हैं तो किसी के लिये 'महारास' के श्यामसुन्दर श्रीकृष्ण। किसी के लिये हनुमान, शंकर हैं तो किसी के लिये 'प्रियतम' सखा, मित्र, किसी के लिये गुरू, परम गुरू, परम इष्ट, आराध्य हैं तो किसी के लिये 'माई बाप' परिवारी हैं। किसी के लिये प्राकृत मनुष्य हैं तो किसी के लिये अनासक्त विशिष्ट मानव हैं। किसी के लिये चमत्कारी सिद्ध, बाजीगर, छलिया हैं तो योगीजनों के लिये अवतारी पुरुष, परम ज्ञानी, विज्ञानी, ऋषि, महर्षि, साधु, मुनि, जोगी, बालरूप निर्गुण, सगुण भगवान, आदि आदि। और इन्हीं भावों के अनुरूप विभिन्न कृपापात्र महाराजजी के व्यक्तित्व एवं शक्ति का बखान करते रहे हैं।
और महाराजजी के भक्त, दया पात्र, तो कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक, पंजाब से आसाम तक तथा देश-विदेशों में भी अनगिनत रहे हैं, यद्यपि उन्होंने इस हेतु किसी संस्था, संस्थान अथवा किसी विशेष नामयुक्त सत्संग रंग आदि की स्थापना कभी भी नहीं की। रमते जोगी, आज यहाँ तो कल वहाँ। किसी स्थान से, किसी व्यक्ति से, किसी मन्दिर आश्रम से कोई लाग नहीं, कोई लगाव नहीं। मन्दिरों एवं आश्रमों की भी व्यवस्था (जो मूलतः प्रचार के माध्यम हुआ करते हैं) अपने पार्थिव शरीर के त्याग के कुछ ही वर्ष पूर्व इस हेतु करवाई कि, (१) अपने भौतिक शरीर के त्याग के बाद उन पर (बाबाजी पर) पूर्ण रूप से आश्रित अवलम्बित भक्त समुदाय को अवलम्बन मिल जाय तथा (२) अपने स्वयं के इस भाव की पूर्ति हेतु कि घोर कलिकाल में इन मन्दिरों/आश्रमों के माध्यम से जन-जन के अन्तर में आध्यात्मिक भाव जागृत होते रहें। इन मन्दिरों और आश्रमों में भी अपना नाम कहीं नहीं आने दिया तथा इन मन्दिरों/आश्रमों की स्थापना कर इन्हें हनुमान जी के नाम ट्रस्ट बनवाकर सौंपते चले गये। यह तो केवल महाप्रयाण के बाद ही भक्तों ने मन्दिरों/आश्रमों में उनका नाम जोड़ दिया। एक ही नेम, एक ही बिरद, जन जन का येन-केन-प्रकारेण कल्याण। इसलिये कृपा-दया-पात्रों में सवर्ण हिन्दू एवं हरिजन भी रहे, मुसलमान भी, ईसाई भी, सिख भी, बौद्ध भी, जैन भी और विदेशी भी।

जन कल्याण हेतु बिना किसी एक स्थान पर अधिक रुके सदा ही भ्रमण करने वाले बाबाजी/महाराजजी ने कहाँ-कहाँ, किन-किन पर तथा कैसे अपनी दया, करुणा, कृपा की वर्षा की, पूर्ण रूप से किसी को ज्ञात नहीं है। कारण ऐसा कोई एक भी व्यक्ति उन के साथ नहीं रहता था जो इन सब घटनाओं का तथा लीलाओं का क्रमशः ब्यौरा रखता और रखता भी तो महाराजजी, जो 'प्रचार' के बिलकुल विरुद्ध थे (और कभी भी अपने को प्रगट होने नहीं देते थे) उसे ऐसा करने भी नहीं देते। श्री के. एम. मुन्शी को और राजा भद्री को ऐसे प्रयासों के कारण बाबाजी की भत्सर्ना का शिकार होना पड़ा था। और बाबाजी की लीलाएँ भी तो इतनी तीव्र गति से प्रतिदिन (प्रतिदिन क्यों कहें, प्रति क्षण) इतने व्यापक रूप से अनेक उद्देश्यों को समाहित करते हुए होती थीं कि उनको याद रखना अथवा उस में निहित 'सार' को समझ कर लिपिबद्ध करना असम्भव ही था। अब तो केवल स्मृति का सहारा लेकर ही उन के बारे में दया-कृपा पात्र उनकी कहानी कह सकते हैं तथा ऐसी स्मृति के सहारे ही उन के बारे में कुछ लिखा भी जा सकता है। उनसे दया, कृपा पाने के हेतु कोई शर्त न थी कि व्यक्ति विशेष उन का भक्त ही हो (या बन जाये), धार्मिक हो, गुणवान हो, और न किसी पर कृपा करने हेतु बाबा जी को उस मैं गुण विशेष की तलाश रहती थी। अपितु, अधिक कृपा-पात्र या तो दुःख सागर में डूबे हुए होते अथवा (सांसारिक दृष्टिकोण से) दुष्कर्म करने वाले होते थे। केवल उनकी मौज, उनकी दया, उन की जन जन के प्रति करुणा ही इस दया कृपा के कारण बन जाते। श्री मुख से यही सुनने को मिलता, 'क्या करें, हमें दया आ जाती है'। महाराज जी को तो किसी से भी अपनी दया-कृपा का कोई भी प्रतिकार उपेक्षित रहता ही न था, कालान्तर में तो अधिकतर दया-पात्र महाराजजी का स्मरण तो अलग रहा, उनकी दया के उन क्षणों को भी भूल जाते थे जिनके कारण ये दया-पात्र नया जीवन प्राप्त कर पाये। उनकी दृष्टि में न कोई अमीर था, न गरीब, न किसी धर्म विशेष का अनुयायी, न कुलीन, न अकुलीन, न किसी जाति विशेष का और न किसी देश, प्रान्त अथवा क्षेत्र विशेष का। उनकी दृष्टि में सभी केवल उस सृष्टिकर्ता की सन्तान थे। इस कारण सब पर दया-कृपा करुणा की समान रूप से वर्षा होती रहती थी। बिना पात्र-कुपात्र, संत-असंत, भक्त-अभक्त का भेद किये। एक ही अपेक्षा थी उन्हें कि सब अपने अपने धर्म में अडिग रह कर भगवद्-भक्ति प्राप्त करें, परन्तु धर्म जाति की आड़ में मानव-मानव में भेद न करें। संकीर्ण एवं रागद्वेष का भाव न रखें। मानव सेवा को ही मुख्य धर्म समझें, सबकी सेवा ही आत्मज्ञान एवं भगवद्प्राप्ति का साधन, यही मुख्य उपदेश था उनका सबके लिये। और स्वयं को भी इन्हीं भावों के परिपेक्ष में उनकी सब लीलाएँ होती थीं।

महाराज बाबाजी वायु की तरह 'अस्पृश्य' थे। उन्हें न पकड़ा जा सकता था, न बाँधा जा सकता था। उनका विराट स्वरूप न कभी दृष्टिगोचर हो सकता था और न किसी में भी ऐसी दैवी शक्ति अथवा जप, तप, साधना आदि की शक्ति थी कि उस विराट के दर्शन पा सके। अनन्त रूप में, हजारों व्यक्तियों के साथ भिन्न-भिन्न स्थानों में जिसने अनेक प्रकार की लीलाएँ की हों उसका विराट स्वरूप जान पाना, देख पाना, यहाँ तक कि पूर्ण लिये आगे बढ़ा कि बाबाजी आश्रम में हैं कि नहीं। बाबाजी आश्रम में ही थे और उन्होंने संदेश भेजा कि वे हम से मिलेंगे। मैं और मेरे साथियों ने टार्च की रोशनी के सहारे सड़क से नीचे उतर कर पहाड़ी नदी पर बने छोटे पुल को पार कर आश्रम में प्रवेश किया। सारा स्थान बिल्कुल जनहीन था तथा वहां पूर्ण शान्ति व्याप्त थी। मन्दिर के पुजारी ने प्रांगण में हमारा स्वागत किया और हमें एक छोटे कमरे में ले गया। आदरणीय बाबा नीम करोली महाराज एक तखत पर एक सादे कम्बल में लिपटे बैठे थे, उन्होंने मेरा और मेरे साथियों का बड़े दया भाव से तथा दयादृष्टि के साथ स्वागत किया और अपने तखत के पास बिष्छी चटाई पर बैठने का इशारा किया। मैंने तखत के पास सिर झुका कर उन्हें प्रणाम किया और जहाँ तखत पर पलथी मार कर बाबा बैठे हुए थे अपना सर उन की गोद में रख दिया। बाबाजी ने कोमल शब्दों में कहा ठीक है ठीक है बहुत अच्छा और मुझे बैठ जाने के लिये इशारा किया। हमारे साथियों में से एक व्यक्ति, श्री योगेश बहुगुणा जो बड़े आदर्श और सत्यनिष्ठ जिज्ञासु युवक थे, अपने साथ एक छोटे तौलिये में लपेट कर सात या आठ संतरे लाये थे। बाबाजी के पास एक खाली टोकरी रखी थी और श्री योगेश बहुगुणा ने उन संतरों को उस टोकरी में अर्पण स्वरूप रख दिया। उसके बाद हमने कुछ संकीर्तन किया तथा दो मिनट के लिये चुप होकर बैठ गये। वहां से विदा लेने के पूर्व तथा बाबाजी के स्वास्थ्य के बारे में पूछ कर उन के कुछ प्रश्नों का उत्तर देने के बाद बाबाजी ने प्रसाद के रूप में फलों को हमें बाँटना शुरू किया। अब तक आश्रम के कुछ कर्मचारी तथा भक्तगण दरवाजे के पास इकट्ठा हो गये थे। तब श्री योगेश जी आश्चर्यचकित हो गये जब उन्होंने देखा कि बाबाजी टोकरी से संतरे उस के बाद भी लेते जा रहे हैं जब वे आठ संतरों को हम में तथा इकट्ठा हुए आश्रम के कर्मचारियों को बांट चुके थे और इस तरह अट्ठारह फल बांट चुके थे। ये दस अतिरिक्त फल उस टोकरी में कहां से आ गये इस तथ्य को हम किसी तरह भी नहीं समझ पाये। शायद केवल बाबाजी ही जानते हैं।
 

कई महत्वपूर्ण व्यक्तियों से बाबाजी के असाधारण व्यक्तित्व एवं शक्तियों के बारे में कथाएँ सुनने को मिलती है, जैसे कि बाबा नीम करोली एक से अधिक स्थानों में एक ही दिन एक ही समय दिखायी दे जाते थे। केवल दिखाई ही नहीं दे जाते थे किन्तु अलग अलग स्थानों में बाबाजी अपने भक्तों के साथ लीलाएँ करते होते। बाबाजी की एक असाधारण बात थी के उन के आने और चले जाने की क्रिया होती। वे एकाएक आप के मध्य बिना सूचना दिये उपस्थित हो जाते तथा जाते वक्त वे केवल उठ कर चले जाते और चलते-चलते लोगों को अपने पीछे आने को मना कर जाते। जिस क्षण वे बाहर निकल कर अदृश्य हो जाते उनको फिर पीछे दौड़ कर या गाड़ी पर बैठ कर पीछा करने पर भी ढूंढना असम्भव हो जाता। केवल सौ गज दूर चले जाने के बाद सड़क के मोड़ पर अदृश्यहो जाते थे, और इतना काफी होता था उन को अदृश्य होने के लिये। इसके बाद एक मील के दायरे में भी उन्हें ढूंढ पाना असम्भव हो जाता। ऐसा विश्वास किया जाता है कि उन्होंने हनुमानजी की उपासना की थी और कई चमत्कार पूर्ण कार्य हनुमान सिद्धि के द्वारा होते बताये जाते हैं।

कुछ भक्त यहां तक कहते हैं, बाबाजी ने आकाश तत्व पर भी अधिकार प्राप्त कर लिया था, और वे कहीं पर भी किसी स्थान पर भी पलक झपकते अपनी इच्छानुसार प्रगट हो जाते थे। साथ में उनकी प्रसिद्धि किसी भी सांसारिक वस्तु से निर्लिप्त होने के कारण भी थी। जिस प्रकार मूक वायु किसी वस्तु से लिप्त नहीं रहती, वे भी उसी पवित्र चलती वायु की तरह अपने आस पास की वस्तुओं से निर्लिप्त रहते थे। परन्तु इस निर्लिप्तता के रहते भी उनके अन्तर में मुसीबत में पड़े हुए तथा व्यथित लोगों के लिये अपार दया थी। वे किसी भी आर्त प्रार्थना को अस्वीकार नहीं करते थे। मुसीबत में पड़े व्यक्तियों के लिये उन के पास प्रेमपूर्ण दया रहती थी और वे उनके कष्टों को प्रभावशाली लोगों के माध्यम से दूर करते थे।

अपना भौतिक शरीर छोड़ने के पूर्व बाबाजी ने अपनी कृपा तथा दया का सबसे बड़ा चमत्कारपूर्ण कार्य जो किया था वह था एक अमरीकन जिज्ञासु रिचर्ड एलपर्ट के जीवन में परिवर्तन। अमरीका में नशे द्वारा भगवद्प्राप्ति के सिद्धान्तों का यह जाना माना नेता हावर्ड यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर जिस समय अपने जीवन की आदर्श एवम् आध्यात्मिक उथल पुथल के मध्य में था, उस समय बाबाजी ने उसे बड़े विचित्र ढंग से अपनी ओर आकर्षित कर लिया और इस पर कृपापूर्ण दृष्टिपात किया। यही प्रथम दर्शन और इसी कृपा ने उसकी व्यथित आत्मा में एक चमत्कारिक परिवर्तन किया और शीघ्र ही यह बाबा रामदास नाम से अपने शिष्यों के बीच एक आध्यात्मिक शिक्षक के रूप में उभर गया। यह हृदयग्राही कथा रामदास ने स्वयं अपनी पुस्तक " BE HERE NOW " में वर्णन की है। यह पुस्तक बहुतही रुचिकर एवम् चित्ताकर्षक अभिलेख है, जिसमें बाबा नीम करोली जी महाराज के चमत्कारिक तथा आश्चर्यजनक व्यक्तित्व की झलकियाँ मिलती हैं।

एक अमरीकन महिला (अंजनी-ताओस) ने सच ही कहा है कि महाराजजी के जीवन का अथवा उनके किसी भी कार्य का कोई भी वर्णन हो ही नहीं सकता। वे केवल अनुभूति रूप में ही महसूस किये जा सकते हैं। वे वर्णनातीत हैं। वे (महाराजजी) कौन थे, कौन हैं, उसकी केवल अनुभूति की जा सकती है अन्तर में। उनके सन्मुख होने पर परमशान्ति एवं नैसर्गिक आनन्द की अमृतमयी वर्षों होती रहती थी। और अब उनकी (भौतिक) अनुपस्थिति, लगता है सभी को अपने कम्बल में समेट चुकी है, समेटती जा रही है। और, जैसा उन्होंने स्वयं कहा था, 'वे कोई भी नहीं हैं' (अर्थात शरीर नहीं हैं)। फिर भी इस छोटी सी पुस्तक में जो कुछ भी प्रयास इस उद्देश्य से किया गया है, आशा है पाठक उसे उक्त संदर्भ में पढ़कर कुछ न कुछ संतुष्ट होंगे। बाबाजी की लीलाओं का कुछ अधिक विस्तृत वर्णन अंग्रेजी में लिखे ग्रन्थ "MIRACLE OF LOVE" तथा "अलौकिक यथार्थ बाबा नीम करौरी जी महाराज" में मिलेगा। एक बात और, बाबा जी द्वारा की गई उक्तियाँ केवल स्मृति के आधार पर लिखी गयी हैं, जिनमें सम्भवतः शब्दों में हेर फेर हो सकता है पर 'उक्ति' के सार तत्त्व में नहीं