त्रिनेत्र गणेश, रणथम्भौर
रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेश जी दुनिया के एक मात्र गणेश है जो तीसरा नयन धारण करते है। गजवंदनम् चितयम् में विनायक के तीसरे नेत्र का वर्णन किया गया है, लोक मान्यता है कि भगवान शिव ने अपना तीसरा नेत्र उत्तराधिकारी स्वरूप सौम पुत्र गणपति को सौंप दिया था और इस तरह महादेव की सारी शक्तियाँ गजानन में निहित हो गई। महागणपति षोड्श स्त्रौतमाला में विनायक के सौलह विग्रह स्वरूपों का वर्णन है। महागणपति अत्यंत विशिष्ट व भव्य है जो त्रिनेत्र धारण करते है, इस प्रकार ये माना जाता है कि रणथम्भौर के रणतभंवर महागणपति का ही स्वरूप है।
यह मंदिर भारत के राजस्थान प्रांत में सवाई माधोपुर जिले में स्थित है, जो कि विश्व धरोहर में शामिल रणथंभोर दुर्ग के भीतर बना हुआ है। अरावली और विन्ध्याचल पहाड़ियों के बीच स्थित रणथम्भौर दुर्ग में विराजे रणतभंवर के लाड़ले त्रिनेत्र गणेश के मेले की बात ही कुछ निराली है। यह मंदिर प्रकृति व आस्था का अनूठा संगम है। भारत के कोने-कोने से लाखों की तादाद में दर्शनार्थी यहाँ पर भगवान त्रिनेत्र गणेश जी के दर्शन हेतु आते हैं और कई मनौतियां माँगते हैं, जिन्हें भगवान त्रिनेत्र गणेश पूरी करते हैं। इस गणेश मंदिर का निर्माण महाराजा हम्मीरदेव चौहान ने करवाया था लेकिन मंदिर के अंदर भगवान गणेश की प्रतिमा स्वयंभू है। इस मंदिर में भगवान गणेश त्रिनेत्र रूप में विराजमान है जिसमें तीसरा नेत्र ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। पूरी दुनिया में यह एक ही मंदिर है जहाँ भगवान गणेश जी अपने पूर्ण परिवार, दो पत्नी- रिद्दि और सिद्दि एवं दो पुत्र- शुभ और लाभ, के साथ विराजमान है। भारत में चार स्वयंभू गणेश मंदिर माने जाते है, जिनमें रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेश जी प्रथम है। इस मंदिर के अलावा सिद्दपुर गणेश मंदिर गुजरात, अवंतिका गणेश मंदिर उज्जैन एवं सिद्दपुर सिहोर मंदिर मध्यप्रदेश में स्थित है। कहाँ जाता है कि महाराजा विक्रमादित्य जिन्होंने विक्रम संवत् की गणना शुरू की प्रत्येक बुधवार उज्जैन से चलकर रणथम्भौर स्थित त्रिनेत्र गणेश जी के दर्शन हेतु नियमित जाते थे, उन्होंने ही उन्हें स्वप्न दर्शन दे सिद्दपुर सीहोर के गणेश जी की स्थापना करवायी थी।
ये मंदिर रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान के भीतर विश्व विरासत में शामिल रणथंभोर दुर्ग में भगवान गणेश का ऐतिहासिक महत्त्व वाला प्राचीन मंदिर स्थित है। इस मंदिर में जाने के लिए लगभग 1579 फीट ऊँचाई पर भगवान गणेश के दर्शन हेतु जाना पड़ता है। भाद्रपद शुक्ल की चतुर्थी को भक्तों की भीड़ के चलते रणथम्भौर की अरावली व विंध्याचल पहाड़ियाँ गजानन के जयकारों से गुंजायमान रहती है।
रणथम्भौर दुर्ग में स्थित भगवान त्रिनेत्र गणेश का शृंगार भी विशिष्ट प्रकार से किया जाता है। भगवान गणेश का शृंगार सामान्य दिनों में चाँदी के वरक से किया जाता है, लेकिन गणेश चतुर्थी पर भगवान का शृंगार स्वर्ण के वरक से होता है, यह वरक मुम्बई से मंगवाया जाता है। कई घंटे तक विधि-विधान से भगवान का अभिषेक किया जाता है वही भगवान त्रिनेत्र गणेश जी की पोशाक जयपुर में तैयार करवायी जाती है। भगवान गणेश की झाँकी पर महाआरती मे दुर्ग परिसर में उगी घास की सफेद सीखियों को काम में लिया जाता है, इन सीखियों पर रूई (कपास) लपेट कर व घी में डुबोकर आरती की जाती है।
प्रतिमा का इतिहास
महाराजा हम्मीरदेव चौहान व दिल्ली शासक अलाउद्दीन खिलजी का युद्ध 1299-1301 ईस्वी के बीच रणथम्भौर हुआ। उस समय अलाउद्दीन खिलजी ने रणथम्भौर के दुर्ग को चारों तरफ से घेर लिया था, नौ माह से भी अधिक रणथम्भौर दुर्ग चारों तरफ से मुगल सेना से घिरा हुआ होने के कारण रणथम्भौर दुर्ग में रसद सामग्री शन: शन: खत्म होने लगी, उस समय महाराजा हम्मीरदेव चौहान को स्वप्न में गणेश जी के दर्शन हुए। राजा हम्मीरदेव ने गणेश की मूर्ति की पूजा की। किंवदंती के अनुसार भगवान राम ने जिस स्वयंभू मूर्ति की पूजा की थी उसी मूर्ति को हम्मीरदेव ने यहाँ पर प्रकट किया।
एक और मान्यता के अनुसार जब द्वापर युग में भगवान कृष्ण का विवाह रूकमणी से हुआ था तब भगवान कृष्ण गलती से गणेश जी को बुलाना भूल गए जिससे भगवान गणेश नाराज हो गए और अपने मूषक को आदेश दिया की विशाल चूहों की सेना के साथ जाओं और कृष्ण के रथ के आगे सम्पूर्ण धरती में बिल खोद डालो। इस प्रकार भगवान कृष्ण का रथ धरती में धँस गया और आगे नहीं बढ़ पाये। मूषकों के बताने पर भगवान श्रीकृष्ण को अपनी गलती का अहसास हुआ और रणथम्भौर स्थित जगह पर गणेश को लेने वापस आए, तब जाकर कृष्ण का विवाह सम्पन्न हुआ। तब से भगवान गणेश को विवाह व मांगलिक कार्यों में प्रथम आमंत्रित किया जाता है। यही कारण है कि रणथम्भौर गणेश को भारत का प्रथम गणेश कहते है।
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🪐 शनिवार, 5 अक्टूबर 2024
विक्रम संवत् 2081