जब श्री राम ने हनुमान जी गर्व हरण किया।

  • Updated: Feb 14 2024 12:18 PM
जब श्री राम ने हनुमान जी गर्व हरण किया।

जब श्री राम ने हनुमान जी गर्व हरण किया।

 

वैसे तो हनुमान जी विद्यावान हैं, परन्तु किवंदितियों में और पुराणों में एक ऐसा प्रसंग भी है जब हनुमान जी को अपने बल का अहं हो गया तब प्रभु श्री राम ने अपनी दयालुता से उसका हरण किया था।

 

एक बार जब लंका पर चढाई करने से पहले श्री राम ने हनुमान जी को काशी से महादेव की आज्ञा से एक उत्तम शिवलिंग लेकर आयो जिसकी स्थापना मैं अपने हाथों से उत्तम मुहूर्त में ही करूँगा इसलिए तुम शीघ्र ही आना। तब हनुमान ने महादेव को प्रणाम किया और महादेव ने हनुमान को कहा - मैं भी चिरकाल से दक्षिण में जाने के निश्चय किया हुआ था और ये अगस्त्य मुनि के साथ किया था। फिर भी जब तक श्री राम की इच्छा न हो ये संभव नहीं हो पाता।

ऐसा सुनकर हनुमान ने महादेव से पुछा के ऐसा निश्चय अपने अगस्त्य मुनि के साथ किस प्रकार किया उस कथा को सुनाने की कृपा करें।

तब मारुति की यह बात सुन कर मैंने उससे कहा- हे मारुति ! मैं तुमसे यह पूर्व वृत्तान्त कहता हूँ, सुनो । एक समय की बात है । जब देवर्षि श्रीनारद मुनि श्रीनर्मदा नदी के पवित्र जल में स्नान कर, सब देहधारी प्राणियों के सर्वस्वदाता श्रीमद् ओंकार ईश्वर की पूजा करने जा रहे थे तो, उन्हें अपने सामने ही सम्पूर्ण संसार के ताप को दूर करनेवाले, रेवा के जल से परिप्लुप्त विन्ध्याचल पर्वत दृष्टि में आया । तब नारद को देख वह पर्वत उनके समक्ष आ गया और उन्हें अपने घर ले जा कर सादर सविधि उनकी पूजा की । फिर मुनि को गतश्रम हुआ देख विन्ध्य नम्र हो बोला- आप के चरण-रज से मेरा पाप-समूह विनष्ट हो गया । हे मुने ! आप के शरीर के तेज के संसर्ग से, आज अनेक मनोव्यथा को उत्पन्न करने वाला मेरा हृदयान्धकार निवृत्त हो गया । हे मुने ! आज मेरे परम शुभ-दिन का उदय हुआ है। चिरार्जित आज मेरे प्राकृत-पुण्य सफल हो गये । आज से पर्वतों में मैं माननीय पर्वत होऊँगा ।

यह सुन कर मुनि ने कुछ ऊर्ध्व श्वाँस ली। तब यह देख संभ्रम से पर्वत ने मुनि से पूछा- हे सर्वार्थकोविद् ब्राह्मण ! कहो, इस उच्छ्वास का क्या कारण है, आप के हृदय के खेद को मैं क्षणमात्र में दूर कर दूँगा । पूर्व-पुरुषों ने कहा है कि मेरु आदि सब पर्वतों को एक में मिलाने पर भी धरा को धारण करने में वे समर्थ नहीं हैं । परन्तु मैं अकेले ही उस धरा को धारण कर सकता हूँ । अभी तो गौरी का पिता होने से तथा पशुपति शिव का सम्बन्धी होने से हिमालय ही सज्जनों के मान का पात्र है और सुवर्ण से आपूर्ण (भरा हुआ), रत्नों के शिखरवाला तथा देवताओं का निवास-स्थान मेरा भी मान्य नहीं है । ऐसे अन्य सैकड़ों पर्वत इस संसार में नहीं हैं, जो इस पृथ्वी को धारण किये हैं ? इससे क्या वे सभी सज्जनों के मान्य हैं ? नहीं, कदापि नहीं । इसी प्रकार उद्याचल भी मन्द है । वह राक्षसों का आश्रयदाता भले ही हो, समर्थ कृपालु भी हो, पर मान्यता नहीं । निषध गिरि भी केवल औषधियों को ही धारण करता है । अस्ताचल का तो तेज ही अस्त हो गया है । नीले नीले पत्थरों का एक समूह ही है । मन्दर पर्वत मन्द लोचनों वाला है । मलय तो सर्पों का आलय है । रैवतक निर्धन है । हेमकूट तथा त्रिकूट आदि केवल कूट उत्तर पदवाले ही हैं । किष्किन्धा क्रौंच और सह्य पर्वत पृथ्वी का भार धारण करने को असमर्थ हैं।

 

तब विन्ध्याचल की इस बात को सुन कर देवर्षि नारद ने मन में विचार किया कि जिसे अखर्व गर्व का संसर्ग हो, उसके प्रति महत्व की कल्पना करना उचित नहीं । क्या इस संसार में श्रीशैल आदि शैल यशस्वी नहीं हैं ? जिनके शिखरों के दर्शनामात्र से शुद्ध अन्तःकरण वाले महापुरुष मुक्ति लाभ करते हैं । अच्छा, आज इसके बल की परीक्षा करूँगा । इस विचार से मुनि ने कहा- पर्वतों के बल-वर्णन में तुमने यह सत्य ही कहा है। किन्तु शैलों में शैल मेरु तो तुम्हारा अपमान करता है। तुम से भी बढ़ कर है । बस, इसी कारण मैंने दीर्घ निःश्वास ली । मैंने तुम से यह बात भी प्रत्यक्ष की है । अन्यथा हम महात्माओं को इन बातों की चिन्ता ही क्या है ? तुम्हारा कल्याण हो । ऐसा कह नारदजी आकाश मार्ग से चले गये । मुनि के चले जाने पर विन्ध्य पर्वत को बड़ी चिन्ता हुई । उसने स्वयं की बड़ी निन्दा समझी और मन में विचार करने लगा कि, मेरु की इतनी महिमा क्यों है? ज्ञात होता है कि, ग्रह तथा नक्षत्र सहित यह सूर्य प्रतिदिन उसकी परिक्रमा करता है । इसी बलाभिमान से वह दर्पित है । यह निश्चय करते ही विन्ध्याचल ने मेरु की समृद्धि देखने के लिए अपने शरीर को ऊपर बढ़ाया । सूर्य के मार्ग को रोक गगनांगण में स्थित हो गया । प्रातः जब सूर्य दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे तो, मार्ग को अवरुद्ध देख वह भी चिरकाल के लिए वहीं स्थित हो गये । जब इस प्रकार कितने ही दिन व्यतीत हुए, तब सूर्य की प्रचंड किरणों के समूह-ताप से पूर्व तथा उत्तर दिशा के प्राणी संताप तापित हो गए अर्थात् संतप्त हो गए और पश्चिम तथा दक्षिण दिशा के प्राणी निद्रा से उन्मीलित नेत्र हो गये । जब कभी देखते तो आकाश तारों और नक्षत्रों से परिपूर्ण दृष्टि आता । जगती पर स्वधाकार, वषट्कार, अग्निहोत्र और पंचयज्ञ की क्रियाएँ लुप्त होने लगीं । त्रैलोक्य काँपने लगे ।

 

तब ब्रह्माजी ने देवताओं से कहा तो उन्होंने पर्वतों के गुरु अगस्त्य मुनि के पास जा कर प्रार्थना की। वह मुनि विह्वल हो यहाँ आये । तब मैंने अगस्त्य से कहा कि तुम दक्षिण दिशा को जाओ । वहाँ विन्ध्याचल को अपनी बातों में बाँध कर कहना, निश्चिन्तता से मेरा भजन करो मैं भी तुम्हारे खेद को दूर करने के लिए और राम की- जिसकी दक्षिण दिशा में स्थापना हुई है, उस सेतुबन्ध रामेश्वर की पूजाकर शीघ्र ही आऊँगा । तब मेरा यह कहना सुन अगस्त्य प्रसन्न हो गये और उसी समय वह काशी को त्याग लोपामुद्रा अपनी स्त्री के साथ विन्ध्य पर्वत की ओर चल दिये । जब वहाँ पहुँचे तो मुनि को सपत्नीक आया देख विन्ध्य काँप उठा । मानों पृथ्वि में धँस जाना चाहा एवं अति लघुरूप धारण कर बोला- मुझ दास के लिए क्या आज्ञा है ?' तब विन्ध्य का प्रश्न सुन अगस्त्य सादर बोले- 'विन्ध्य ! तुम साधु-पुरुष तथा प्राज्ञ हो । मुझे तत्वतः जानते हो । अतएव जब-तक मेरा यहाँ पुनरागमन नहीं होता, तब तक इसी प्रकार नत सिर किए पड़े रहो । इतना कह कर अगस्त्य दक्षिण को चले गए । वही (पर्वत) कम्पित हो कर आज कहता है कि मेरा पुनर्जन्म हुआ ।

इतना कह जब बारह वर्ष पश्चात् वह उठा एवं सिर को ऊँचा कर दक्षिण की ओर देखा, तो मुनि नहीं दिखाई पड़े । उसने फिर वैसा ही नीचा शिर कर लिया । उसने सोचा, मुनि को आज-कल या परसों तक अवश्य यहाँ आना चाहिये । इस प्रकार वह महान् चिन्ता में पड़ा और वैसे ही स्थित रहा । पर वे मुनि न तो आज-तक आए और न पर्वत खड़ा ही हुआ । इसी समय कालज्ञ अरुण (सूर्य का सारथि) ने भी अपने घोड़ों को हाँक दिया । भानु (सूर्य) के पुनः संचार से जगत् स्वस्थ हो गया । तब से वे मुनि दण्डक- वन में जा कर मेरे वचन को मन में स्मरण करते हुए मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं । इस कारण हे कपे ! मैं वहाँ अवश्य जाऊँगा ।

 

(हनुमान् को गर्वित जान श्रीराम का बालुका मूर्ति की स्थापना करना)

हे देवि ! इस प्रकार कह कर मैंने मारुति को काशी से विदा किया। मारुति शीघ्र ही आकाश-मार्ग से राम के पास चला । उस समय दो लिंग प्राप्त कर लेने से उसके मन में कुछ दर्प (अभिमान) आ गया । राम उसके दर्प को जान गये । उन्होंने सुग्रीव आदि से कहा- मेरा शिवलिंग- स्थापना का मुहूर्त व्यतीत हो रहा है । अतः मैं बालुका-लिंग बना कर सागर के तट पर इस पार स्थापित कर देता हूँ। इतना कह सब मुनियों और बानरों को बुला कर राम ने सविधि बालुका-लिंग की वहाँ पर स्थापना की । फिर रघुनन्दन ने कौस्तुभमणि का स्मरण किया । स्मरण करते ही सूर्य के समान प्रभावशाली वह मणि आकाश से उतर आया । रघुनन्दन ने उसे अपने कण्ठ में बाँध लिया । उस मणि से प्राप्त धन, वस्त्र, आभूषण, अश्व, धेनु, दिव्य पकवान तथा पायस आदि से राम ने मुनियों की पूजा और सत्कार किया ।

 

राघव से पूजित मुनि प्रसन्न हो अपने-अपने आश्रमों को चले । मार्ग में उनकी मारुति से भेंट हो गई । तब मारुति ने उनसे पूछा कि आप की यह पूजा किसने की है ? उन्होंने राम के लिंग-स्थापना की बात कह सुनाई । उसे सुन हनुमान् क्रुद्ध हो विचार करने लगे कि तब तो राम ने मुझे व्यर्थ ही इतना परिश्रम दिया । यह उन्होंने मेरे साथ ठगी की। यह विचारते हुए वह क्रोध से राम के पास आया और एक धमाके के साथ अपने दोनों पावों को पृथ्वी पर पटक दिया । इससे उसके दोनों पैर पृथ्वी में धँस गये । पश्चात् हनुमान् ने राम से कहा कि क्या आप को मेरा स्मरण नहीं था ? मैंने लंका में जा कर सीता को ढूँढ़ कर आप को उसकी सूचना दी थी। उसी के बदले आज आप ने मुझे काशी भेज कर मेरा यह उपहास किया ? यदि आप के मन में यही था तो फिर आप ने मुझे व्यर्थ का परिश्रम क्यों दिया ? यदि मुझे आप के मन का यह भेद ज्ञात होता तो मैं काशी जा कर ये दो शिवलिंग न ले आता । इनमें से यह एक उत्तम लिंग आप के लिए और दूसरा अपने लिए ले आया हूँ। अब मैं इस आप वाले लिंग को ले कर क्या करूँगा ।

 

(हनुमान् का उस बालुकामयी मूर्ति को उखाड़ने में अपनी सारी शक्ति लगा देना और असफल होना)

इस प्रकार कुछ क्रोधयुक्त तथा गर्व-समन्वित हनुमान् का वाक्य सुन राम ने कहा- हे कपे ! तुम ठीक कहते हो । परन्तु यदि तुम मेरे इस स्थापित लिंग को पूँछ में लपेट कर बलपूर्वक उखाड़ डालो, तो मैं तुम्हारे काशी से लाए विश्वेश्वर नामक लिंग की यहाँ पुनः स्थापना कर दूँगा । तब हनुमान् ने उस बालुका-लिंग के ऊर्ध्व भाग में अपनी पूँछ लपेट कर बारम्बार बलपूर्वक उसे हिलाया । कपि की पूँछ टूट गयी। वह पृथ्वी पर गिर पड़ा और मूर्छित हो गया । परन्तु ईश्वर का वह बालुका-लिंग नहीं हिला । सब बानर हँसने लगे । तब कुछ देर में गर्व गत होने पर मारुति स्वस्थ हुए और उन्होंने सभक्ति राम को नमस्कार कर उनकी प्रार्थना की । उसने कहा- 'हे राम ! आप कृपानिधि हैं। मुझसे जो अपराध हुआ, उसे क्षमा करें । तब राम ने कहा- मारुति ! तुम मेरे स्थापित लिंग से उत्तर की ओर इस विश्वनाथ नामक अपने लाए हुए लिंग की स्थापना कर दो । मारुति ने सादर उस लिंग को वहाँ स्थापित कर दिया । राम ने उस मारुति लिंग को वर दिया कि, मारुते ! तुम्हारे द्वारा स्थापित यह विश्वनाथ लिंग मेरे स्थापित लिंग से प्रथम पूजनीय होगा । ऐसा न कर जो मेरे सेतुबन्ध रामेश्वर की पूजा करेगा । उसकी पूजा असफल हो जायेगी ।

 

(हनुमान् का अपने लाए हुए लिंग को अलग स्थापित करना और राम का आशीर्वाद देना)

 

इतना कह कर राम ने हनुमान् से फिर कहा कि जो उत्तम लिंग तुम मेरे लिए ले आए हो, उसे यों ही विश्वनाथ के देवालय में पड़ा रहने दो । दीर्घकाल तक वह लिंग पृथ्वी पर स्थापित और अपूजित ही रहेगा ।

भविष्य में चिरकाल पश्चात् उसकी भी मैं अवश्य स्थापना करूँगा । यह लिंग अब भी विश्वेश्वर के समीप यों ही रक्खा है। उसकी न तो पृथ्वी में प्रतिष्ठा हुई है और न कोई उसकी पूजा ही करता है। तब श्री राम ने हनुमान से कहा कि तुम्हारा लांगूल भी यहीं छिन्न हुआ है तो तुम यहीं पृथ्वी में गुप्तपाद होकर तथा अपने गर्व को स्मरण करते हुए स्थित रहो। तब हनुमान जी ने अपने अंश से वहीँ अपनी मूर्ति स्थापित की। सेतुमाधव मूर्ति अभी भी वहीँ विधमान है।