कृष्णजन्म में सोलह हजार स्त्रियों की प्राप्ति का एक कारण

  • Updated: Feb 24 2024 12:19 PM
कृष्णजन्म में सोलह हजार स्त्रियों की प्राप्ति का एक कारण

कृष्णजन्म में सोलह हजार स्त्रियों की प्राप्ति का एक कारण

 

एक बार वेदव्यास जी राम चंद्र के दर्शनार्थ और चैत्र राम नवमी के स्नान हेतु अपने शिष्यों सहित अयोध्या में पधारे। ये समाचार सुनकर श्री राम भक्तिमय होकर उनके समक्ष गए और श्री वेदव्यास जी को उत्तम आसन पर बिठाया और शिष्यों को भी सुन्दर आसन देकर बिठाया। वेदव्यास जी से हाथ जोड़ कर उनकी पूजा की और उनको भोजन कराया फिर दक्षिणा दी। उसके उपरांत कुशल मंगल पुछा और तब कुशल-प्रश्न के अनन्तर श्रीव्यासजी अपना कुशल मंगल सुनाते हुए कहने लगे कि हे महावाहो राम ! इस समय भूमण्डल पर जैसा राज्य आप कर रहे हैं, वैसा किसी राजा ने नहीं किया और न भविष्य में कोई करेगा । साथ ही, जैसा आप ने एक-पत्नीव्रत किया है, वैसा व्रत किसी राजा ने नहीं धारण किया है। यह देख कर मेरे मन में बड़ा आश्चर्य होता है । भला इस संसार में कौन सामर्थ्यवान् राजा है, जो इस तरुण अवस्था में कामरूपी दावानल को सहन कर सके ? इस उच्चपद को प्राप्त कर के युवावस्था की उठान में तो एकपत्नीव्रत को धारण करनेवाले केवल आप ही हैं।

 

तब व्यासजी की इस प्रकार की बात को सुन कर श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- 'हे मुनिसत्तम ! मैंने अपने लिये तीन नियम कर लिये हैं। एक यह कि एक बार मुख से जो निकल जाय, वह ध्रुव है अर्थात् प्राण संकट में आने पर भी उससे न हटें । दूसरी बात यह कि सीता को छोड़ कर संसार की समस्त स्त्रियों को मैं अपनी माता कौशल्या के ही समान जानता हूँ । अन्य स्त्री को मैं अपने मन से भी नहीं सोचता । मेरा तीसरा नियम यह है कि जिसका वध किया चाहता हूँ, उस पर केवल एक बाण छोड़ता हूँ और उसी से वध कर डालता हूँ । उसके लिये अन्य बाण नहीं उठाता । हे मुनिराज ! यह तीन नियम मैंने धारण किया है । आशा है कि आप के आशीर्वाद से मेरे ये तीन नियम अखंडित रहेंगे ।'

 

श्रीरामचन्द्रजी के इस कथन को सुन कर वेदव्यासजी ने भी कहा- राजन् ! आप की जो इच्छा है, वैसा ही होगा । आप ने जो एकपत्नी- व्रत धारण किया है, इसके फल में दूसरे जन्म में आप को बहुत सी स्त्रियाँ प्राप्त होंगी ।

 

इस प्रकार श्रीवेदव्यासजी की बात सुन कर श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे मुने ! अवश्य ही, जब आगे द्वापर में मैं कृष्ण रूप धारण करूँगा तब मुझे भोगार्थ बहुत सी स्त्रियाँ प्राप्त होंगी, यह आप का कथन सर्वथा ही सत्य है। किन्तु आप मुझे यह तो बताइए कि वह ऐसा कौन-सा व्रत अथवा दान

 

है जिसके करने से मुझे अगले जन्म में बहुत-सी स्त्रियाँ प्राप्त होंगी ? श्रीव्यासजी ने कहा- हे राम ! यह आप ने बड़ा सुन्दर प्रश्न किया है । मैं तुम्हें वह दान बतलाता हूँ। यद्यपि इस एकनारी-व्रत से ही तुम्हें बहुत- सी स्त्रियाँ प्राप्त होंगी; तथापि उस दान को भी मैं तुमसे बतलाता हूँ । अब तुम सीता के समान भारवाली सुवर्ण की एक मूर्ति बनवाओ तथा उसी प्रकार की सोलह मूर्तियाँ तुम और भी तैयार करा लो और उन्हें विविध प्रकार के भूषणों से भूषित कर के उन्हें सरयू नदी के तट पर ब्रह्मणों को दान दे दर्दा । इस प्रकार के दान से तुम अगले जन्म में बहुत-सी स्त्रियों को पाओगे । रामचन्द्रजी ने इसे स्वीकार किया । उन्होंने सीता की सोलह मूर्तियाँ बनवायीं और उन्हें सरयू नदी के तट पर जा कर ब्राह्मणों को दान दिया । तब उस दान को ले कर उन ब्राह्मणों ने प्रसन्न हो कर यह आशीर्वाद दिया कि 'हे राम ! आप इस जन्म में यह जो कुछ हम लोगों को दे रहे हैं, वह सहस्त्रगुणा हो कर आप को अगले जन्म में प्राप्त होवे । इसमें संशय नहीं है। हमारा विचार है कि आप को भविष्य में सोलह हजार स्त्रियाँ प्राप्त होंगी । रामजी ने कहा- 'एवमस्तु' ऐसा ही हो । फिर तो उन ब्राह्मणों की और व्यासजी की भली-भाँति पूजा कर के श्रीरामचन्द्रजी ने उन्हें विदा किया ।

 

एक समय चैत्र मास में श्रीरामचन्द्रजी सीता जी के साथ जब तम्बू में विहार कर रहे थे, तब-तक चैत्र-रामनवमी को सरयू-स्नान करने के लिए सहस्त्रों यात्री अयोध्या में आ पहुँचे । उनमें अनेक देवता, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, पन्नग, नाग, बल्ली (लताएँ), नदियाँ, समस्त तीर्थ, मुनि, नृपतिगण, अप्सराएँ, पक्षी, क्षेत्र, बानर आदि वहाँ स्नान करने के लिये आये । तब एक दिन देवताओं की स्त्रियाँ (जब सीताजी मासिक धर्म में थी) परस्पर परामर्श कर विविध प्रकार के वस्त्राभूषण धारण किये श्रीरामचन्द्रजी के समीप आईं । वे सबकी-सब श्रीरामचन्द्रजी के सौन्दर्य को देख कर उन्मत्त-सी हो गई थीं । उन्हें देख कर रक्षकों ने पूछा- 'तुम लोग कौन हो ? इस अर्द्ध-रात्रि के समय में यहाँ क्यों आई हो ? स्पष्ट बतलाओ, व्यग्र होने की कोई बात नहीं ।' तब उन सब स्त्रियों ने कहा कि 'हम सब स्त्रियाँ श्रीरामचन्द्र के दर्शनार्थ यहाँ आई हैं। यदि इसी समय हमें राम के दर्शन न होंगे, तो हम सब सरयू नदी में कूद कर अपने प्राण त्याग कर देंगीं।'

 

तब उनकी ऐसी बात सुन कर दूतगण राम के पास दौड़ कर गये और दासियों द्वारा वह सब समाचार उन्हें कहला भेजा । दासियों ने उन स्त्रियों का सब वृत्तान्त विस्तारपूर्वक उन्हें कह सुनाया । तब दासियों के मुख से उस वृत्तान्त को सुन कर श्रीरामचन्द्रजी ने उन सब देवाङ्गनाओं को अपने समीप बुलवा भेजा । उन सब स्त्रियों ने वहाँ पहुँच कर भगवान् का दर्शन किया । देवाङ्गनाओं ने उनकी उस माधुरी शोभा को देख कर अपने को कृतार्थ समझा । उन सब ने लज्जित हो कर भगवान् को प्रणाम किया और काम-बाण से पीड़ित हो कर वे वहीं बैठ गईं। राम ने उनके आगमन का कारण पूछा । उन्होंने कहा- आप सब के ईश्वर हैं। भला आप से दुराव क्या हो सकता है । आप तो अन्तर्यामी हैं। तब उनके मन की बात को जान कर श्रीरामचन्द्रजी ने कहा- हे स्त्रियों ! इस जन्म में तो मैं एकपत्नीव्रतधारी हूँ। मैं जो कह रहा हूँ, इसे मिथ्या न जानना । अच्छा, अब तुम सब अपने- अपने स्थान को जाओ और ऐसा करो कि जिसमें मेरे हाथ से कोई अधर्म न होने पावे । क्योंकि जिस राजा के राज्य में अधर्म होता है, वह राजा नरकगामी होता है । तब राम की ऐसी बातें सुन कर काम-बाण से पीड़ित वह सहस्रों स्त्रियाँ वहाँ तत्क्षण मूच्छित हो गयीं । तब उन्हें मूच्छित होते देख विह्वलमनस्क श्रीरामचन्द्रजी उनको सन्तोष देते हुए बोले- 'हे नारियों ! मेरी बात सुनो, इस प्रकार तुम अपना धैर्य न त्यागो और मैं जो कहता हूँ, उसे सुनो । तुम्हारी सब व्यथा दूर हो जावेगी । आगे द्वापर युग के आने पर मैं श्रीकृष्ण के रूप में गोपेश नंद के द्वारा पालित हो कर व्रज में जन्म धारण करूँगा । उस समय सब देवता मेरे आशीर्वाद से गोप हो कर उत्पन्न होगे । इन्द्र नन्दरूप से जन्म लेंगे । तुम सब उन गोपालों की गोपियाँ होओगी । उस समय मैं तुम सब की मनोकामनाएँ पूर्ण करूँगा । यमुना की रेत में रात्रि में तुम सब के साथ मैं रासक्रीड़ा करूँगा । अब तुम लोग प्रसन्न हो कर अपने-अपने स्थान को जाओ । तब राम के इस वचनामृत को सुन उन स्त्रियों में प्राण आया और किंचित् संतुष्ट हो कर वे अपने-अपने स्थान को लौट गयीं ।

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