पंचकन्या
पंचकन्या शब्द दो शब्दों को जोड़कर बना है पञ्च अर्थात पांच और कन्या अर्थात कुंवारी , लड़की, युवती। पंचकन्या रामायण और महाभारत काल से पांच स्त्रियों का समूह है जिन्हें हमारे हिन्दू धर्म में अत्यधिक पवित्र माना गया है और इनका स्मरण करना पापनाशक बताया गया है।
इन पञ्चकन्याओं के स्मरण के स्मरण के लिए संस्कृत में श्लोक है:
अहल्या द्रौपदी सीता तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशिनीः ॥
एक और श्लोक है जो ब्रह्मपुराण के अनुसार है और इसमें माता सीता के स्थान पर कुन्ती को रखा गया है।
अहल्या द्रौपदी कुन्ती तारा मंदोदरी तथा।
पंचकन्याः स्मरेन्नित्यं महापातकनाशिनी म ॥
अर्थ- अहिल्या (गौतम ऋषि की पत्नी), द्रौपदी (पांडवों की पत्नी), तारा (वानरराज बलि की पत्नी), कुंती (पांडवों की माता) और मंदोदरी (राक्षस राज बाली की पत्नी) इन पांच कन्याओं के नित्य स्मरण से महा पापों का भी विनाश हो जाता है।
1. अहिल्या- अहिल्या को भगवान ब्रह्मा ने स्वयं बनाया था। अहिल्या में हल्या- हल का अर्थ है कुरूप, अतः कुरूपता न होने के कारण ब्रह्मा ने इन्हें अहिल्या नाम दिया। कथाओं के अनुसार यह गौतम ऋषि की पत्नी और ब्रह्माजी की मानसपुत्री थी। ब्रह्मा ने अहल्या को सबसे सुंदर स्त्री बनाया। सभी देवता उनसे विवाह करना चाहते थे। ब्रह्मा ने एक शर्त रखी जो सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आएगा वही अहल्या का वरण करेगा। इंद्र अपनी सभी चमत्कारी शक्ति द्वारा सबसे पहले त्रिलोक का भ्रमण कर आये। लेकिन तभी नारद ने ब्रह्माजी को बताया की ऋषि गौतम ने इंद्र से पहले किया है। नारदजी ने ब्रह्माजी को बताया की अपने दैनिक पूजा क्रम में ऋषि गौतम ने गाय माता का परिक्रमा करते समय बछडे को जन्म दिया। वेदानुसार इस अवस्था में गाय की परिक्रमा करना त्रिलोक परिक्रमा समान होता है। इस तरह माता अहल्या की शादी अत्रि ऋषि के पुत्र ऋषि गौतम से हुआ। इंद्र अहिल्या की सुन्दरता पर अत्यधिक मोहित था इसलिए इंद्र ने एक युक्ति बनायीं।
गौतम ऋषि अपनी दैनिक दिनचर्या के अनुसार रोज सुबह सूर्योदय से पहले स्नान कर लेते थे। एक दिन इंद्र ने मुर्गा बनकर बांग दी जिससे गौतम ऋषि स्नान के लिए अपनी कुटिया से चले गए और इंद्र गौतम ऋषि का वेष धरकर अपनी काम इच्छा की पूर्ती हेतु कुटिया में आ गया। इतने में गौतम ऋषि को आभास हुआ के अभी प्रातः काल में समय है और वो वापिस कुटिया की और जाने लगे। वहां वो इंद्र को जाते हुए देख लेते हैं और उसे श्राप देते हैं। इसके बाद उन्होंने अहिल्या को भी पत्थर की शिला बनने का श्राप दे दिया, परन्तु अहिल्या के बार बार विनती करने बाद गौतम ऋषि बताते हैं के जब युगों के बाद भगवान विष्णु श्री राम के रूप में अवतार लेंगे तब उनके चरणों से तुम्हारा उद्धार होगा। जब त्रेता युग में श्री राम ऋषि वशिष्ट और लक्ष्मण के साथ आते हैं तब उनके चरण स्पर्श के बाद अहिल्या वापिस स्त्री रूप में ऋषि गौतम के पास लौट जाती है।
2. तारा- तारा वानर राज बालि की पत्नी और अंगद की माता का नाम है। पंचकन्याओं में वर्णित तारा के विषय में हिन्दू धर्म में दो मान्यता है एक तो वानर राज बालि की पत्नी और दूसरी देवताओं के गुरु बृहस्पति की पौत्री। परन्तु बहुतायत में रामायण में बालि की पत्नी तारा को ही पंचकन्याओं में मान्यता दी गयी है। एक कथा के अनुसार समुद्र मन्थन के दौरान चौदह मणियों में अप्सराएँ भी थीं। उन्हीं अप्सराओं में से एक तारा थी। बालि और सुषेण दोनों मन्थन में देवतागण की मदद कर रहे थे। जब उन्होंने तारा को देखा तो दोनों में उसे पत्नी बनाने की इच्छा जागी। वालि तारा के दाहिनी तरफ़ तथा सुषेण उसके बायीं तरफ़ खड़े हो गए। तब विष्णु ने फ़ैसला सुनाया कि विवाह के समय कन्या के दाहिनी तरफ़ उसका होने वाला पति तथा बायीं तरफ़ कन्यादान करने वाला पिता होता है। अतः बालि तारा का पति तथा सुषेण उसका पिता घोषित किये गए।
तारा किष्किंधा की रानी थी और राजनीति तथा कूटनीति की अच्छी जानकार तो थी ही इसी के साथ साहसी और ज्ञानी भी थी। इसका उदाहरण रामायण में तीन प्रसंग में देखने मिलता है:
1. सुग्रीव द्वारा बालि को दूसरी बार युध्द के लिए ललकारने पर तारा बालि को समझाती है के सुग्रीव श्री राम और लक्ष्मण की शरण में है और उसे भी प्रभु श्री राम का साथ देते हुए माता सीता को खोजने में उनका साथ देना चाहिए और सुग्रीव को राजकुमार घोषित कर देना चाहिए।
2. बालि के वध पर तारा विलाप करती है और प्रभु श्री राम को श्राप देती हैं के बालि द्वारा घटना को दोहराया जाएगा और एक दिन बालि द्वारा आप पर बाण चलाया जायेगा। द्वापर युग में श्री कृष्ण को जो शिकारी तीर मारता है वही त्रेतायुग में बाली था।
3. जब बालि के वध के बाद सुग्रीव राजोउल्लास में व्यस्त हो गया और माता सीता की खोज का वचन का स्मरण न रहा तब लक्ष्मण क्रोधित अवस्था में उसके राजमहल में जाते हैं तब तारा ही उनके क्रोध अपनी राजनैतिक चतुराई से उन्हें समझाते हुए शांत करती हैं।
3. मंदोदरी - मंदोदरी पंचकन्या में से एक थी जिसे चिर कुमारी रहने का वरदान प्राप्त था। मंदोदरी मयदानव की पुत्री थी और जब रावण अपने विश्वविजय अभियान पर था तब मयदानव के पास रुका था और मंदोदरी को देख कर उस पर मोहित हो गया। तब मयदानव के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा और भगवान महादेव के आशीर्वाद से मंदोदरी के साथ विवाह करता है। ऐसा माना जाता है के मंदोदरी भी बड़ी शिव भक्त थी और शिव से वरदान माँगा था के उसका पति विश्व में सबसे बड़ा विद्वान और शिव भक्त होना चाहिए। इसलिए रावण के साथ उसका विवाह हुआ।
मंदोदरी की माँ हेमा नामक अप्सरा थी और मंदोदरी बहुत सुन्दर, रूपवान, गुणवान और बुद्धिमान थी। वो एक पतिव्रता स्त्री थी और हमेशा रावण को धर्मपरायण ही सलाह देती थी। मान्यताओं में बताई गई एक कथा के अनुसार, मधुरा (एक दिव्य परी) ने एक बार कैलाश पर्वत की यात्रा की थी। वहां वो देवी पार्वती की अनुपस्थिति में भगवान शिव को प्रशन्न करने का प्रयास करने लगी। जब देवी पारवती कैलाश पर आयी तब उन्होंने मधुरा के कृत्य के लिए उसे श्राप दिया के वो मेंढकी हो जाये। भगवान शिव माता पार्वती को आग्रह करते हैं के वो श्राप वापिस लें लें परन्तु वो ऐसा नहीं कर पति हैं। माता पार्वती मधुरा को एक उपाय बताती हैं के वो 12 साल तक एक कुएं में रहकर तप करे तो वो पुनः स्त्री रूप को प्राप्त कर लेगी। जब मधुरा मेंढकी रूप में कुएं में तप कर रही थी तब वहां मयदानव अप्सरा हेमा के साथ उसी कुएं के पास तप करने लगते हैं। 12 साल की अवधि पूरी होने पर जब मधुरा पुनः स्त्री रूप में आ गयी और कुएं से बहार निकलने की लिए सहायता मांगने लगी तब मयासुर और हेमा ने उसे बाहर निकला और विधिवत अपनी पुत्री रूप में स्वीकार कर लिया।
रावण की मृत्यु के बाद मंदोदरी धर्मानुसार लंका में ही रही। कहीं कहीं ऐसा वर्णन है के मंदोदरी ने विभीषण के साथ विवाह भी किया था और कई जगह वर्णन मिलता है के मंदोदरी ने विवाह नहीं किया था।
4. द्रौपदी - द्रौपदी महाभारत के सबसे महत्वपूर्ण किरदारों में से एक है। महाभारत के अनुसार द्रौपदी पांचाल नरेश द्रुपद की बेटी थी। वो पांच कन्याओं में से एक थी जिन्हे चिर यौवन का वरदान था। द्रौपदी को कृष्णा, यञसेनी, पांचाली और द्रुपदकन्या के नाम से भी जाना जाता है। श्री कृष्णा द्रौपदी को सखी कह कर सम्भोदित करते थे। द्रौपदी पूर्वजन्म में मुद्गल ऋषि की पत्नी थी उनका नाम इन्द्रसेना था। गुरु द्रौणाचार्य से अपमान के बाद द्रुपद नरेश ने एक यज्ञ किया जिससे एक पुत्र और उसके बाद उसी अग्नि से एक पुत्री भी प्रकट हुयी जो जिसके नेत्र कमल के सामान थे और देखने में बहुत ही सुन्दर थी, उसका वर्ण श्याम था इसलिए उसका नाम कृष्णा रखा गया। द्रुपद कन्या होने के कारन उसका नाम द्रौपदी भी रखा गया और द्रौपदी नाम ही प्रचलित हुआ।
द्रौपदी का जन्म नहीं हुआ था वो अग्नि से अपने युवती रूप में ही प्रकट हुयी थी तो उस कारण उसका कोई बचपन नहीं था। इसलिए जल्दी ही राजा द्रुपद ने उसके विवाह के लिए स्वयंवर की घोषणा की जिसमें कौरव, कर्ण सहित बहुत से वीरों ने भाग लिया। स्वयंवर के बाद जब अर्जुन द्रौपदी को लेकर कुंती के पास गए तब अर्जुन ने कहा के माता देखिये हम क्या लेकर आये हैं। इतना सुनकर कुंती ने आदेश दिया के जो भी लाये हो पांचो भाई आपस में बाँट लो। वो सब जानते थे के ऐसा करना बहुत कठिन है तब ऋषि व्यास जी ने कुंती और पांडवों को द्रौपदी के पिछले जन्म में मिले वरदान का बताया। व्यास जी से सारा वृतांत सुनने के बाद द्रौपदी और पांडवों का विवाह संपन्न हुआ। द्रौपदी का चीरहरण महाभारत के युद्ध का प्रमुख करण बना।
द्रौपदी के पांच पुत्र थे। युधिष्ठिर से प्रतिविन्ध्य, भीम से सुतसोम, अर्जुन से श्रुतकर्मा, नकुल से शातनिक और सहदेव से श्रुतसेन। इन पाँचों पुत्रो की हत्या अश्व्थामा ने की थी। जब पांडव अपना राज त्याग कर द्रौपदी को संग लेकर स्वर्ग के लिए हिमालय की यात्रा कर रहे थे तब उसी मार्ग में द्रौपदी चलते चलते गिर गयी और उसकी मृत्य हो गयी।
5. कुंती – कुंती एक यादव शासक शूरसेन की पहली संतान थीं। वह कृष्ण के पिता वासुदेव की बहन, पांडु की पत्नी और कर्ण और पांडवों की माँ थीं। यहाँ कुंती के जीवन की कुछ कम ज्ञात कहानियाँ हैं।
एक यादव शासक शूरसेन की बेटी के रूप में जन्मी कुंती का नाम जन्म के समय पृथा था। शूरसेन ने अपने पहले जन्मे बच्चे को अपने निःसंतान चचेरे भाई कुन्तिभोज को दे दिया, क्योंकि उसने पहले एक वादा किया था। अपने नये घर में पृथा को कुंती के नाम से जाना जाने लगा। बाद में अर्जुन को पार्थ के नाम से भी जाना जाने लगा क्योंकि वह पृथा के पुत्र थे। कुंती ने एक कन्या के रूप में ऋषि दुर्वासा की श्रद्धापूर्वक सेवा की। उसके आतिथ्य से प्रसन्न होकर, उसने उसे एक विशेष वरदान दिया, जिसके कारण वह उनसे बच्चे पैदा करने के लिए अपनी पसंद के किसी भी दिव्य प्राणी को बुला सकती थी। इसी के प्रति जिज्ञासावश, उसने सूर्य देव का आह्वान करने के लिए मंत्र का उपयोग किया, और उसे कर्ण नामक एक पुत्र का आशीर्वाद मिला। चूंकि वह विवाह से पूर्व पैदा हुआ था, कुन्ती को खुद को अपमान से बचाने के लिए उसे त्यागना पड़ा।
वयस्क होने के बाद, उन्होंने कुरु के राजा पाण्डु को अपने पति के रूप में चुना, लेकिन उनका विवाहित जीवन तब परेशान हो गया जब मद्र की राजकुमारी माद्री, पाण्डु की दूसरी पत्नी बन गईं। एक दिन, पाण्डु को शाप दिया गया कि यदि वह उसकी किसी भी स्त्री को यौन इरादे से छूने की कोशिश करेगा तो वह तुरंत नष्ट हो जाएगा। पश्चाताप से भरकर, उन्होंने अपना राज्य त्याग दिया और अपनी दोनों पत्नियों के साथ जंगल में रहने का फैसला किया। कुन्ती ने अपने पति के अनुरोध पर, अपने मंत्र का उपयोग किया और उन्हें तीन बच्चों का आशीर्वाद मिला - युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन। बाद में, उन्होंने अपना मंत्र माद्री के साथ साझा किया, जिसे नकुल और सहदेव का आशीर्वाद प्राप्त हुआ।माद्री के साथ संभोग के प्रयास के बाद पाण्डु की मृत्यु हो गई और माद्री ने आत्मदाह कर लिया, कुन्ती ने अपने सौतेले बेटों को गोद ले लिया और अपने बच्चों को कुरु की राजधानी हस्तिनापुर ले गई।
युधिष्ठिर के राज्याभिषेक के बाद गांधारी और धृतराष्ट्र ने वन में जाने का निर्णय लिया। लेकिन जब जोड़ा महल से बाहर आया, तो कुंती को उनका नेतृत्व करते देख पांडव आश्चर्यचकित रह गए। आश्चर्यचकित युधिष्ठिर ने कुंती से पूछा कि अब वह उन्हें कैसे छोड़ सकती है जबकि वह वही थी जिसने उन्हें सिंहासन के लिए लड़ने के लिए प्रोत्साहित किया था। कुंती ने शांति से उत्तर दिया कि उसने अब तक जो कुछ भी किया वह अपने पुत्रों के कल्याण और सुरक्षा के लिए किया। अब जब वे सुरक्षित थे, तो उसने गांधारी और धृतराष्ट्र के साथ उनकी अंतिम यात्रा पर चलने का फैसला किया। विदुर, संजय, धृतराष्ट्र और गांधारी के साथ, कुंती ने अपने शेष दिन जंगल में बिताने के लिए हस्तिनापुर छोड़ दिया।
कुंती और गांधारी ने धृतराष्ट्र के साथ जंगल में अपने दिन प्रार्थना और उपवास में बिताए। एक दिन, एक तूफ़ान आया और उसके साथ जंगल में आग लग गयी। विदुर पहले ही मर चुके थे, लेकिन तीनों ने संजय को भागने के लिए मना लिया क्योंकि वे आग से भागने के लिए बहुत कमजोर और असहाय हो गए थे। संजय हिमालय पहुँचे। दुर्भाग्य से, गांधारी, धृतराष्ट्र और कुंती जंगल की आग में भस्म हो गए।
विक्रम संवत् 2082
🔆 मंगलवार, 17 जून 2025